हुस्न में जज्ब-ए-अमज़द ही नहीं
या हमें आपकी
चाहत जो नहीं
जिधर भी जाइए
अनजाने चेहरे हैं
किसी से मिलने
की फुर्सत जो नहीं
जब भी गुजरो
धुंध सी दिखती
है
कोहरा होगा, चूल्हे का धुंआ तो
नहीं
दिलों की तरह
बौने हो गये
पौधे
इस शहर में
कोई बागीचा जो नहीं
आपकी बातों में
ही मजा आता
है
कुछ और सुनने
की आदत जो
नहीं
ईमान वाला है,
सुना तो है
लेकिन
वो आदमी अजायबघर का तो नहीं
बर्दाश्त कर लो,
तुम भी चुपचाप बैठो
लोगों में बोलने
की हिम्मत जो नहीं
गहराते साये
का खौफ सा दिल में
मशाल जलाने
को जगह तो नहीं
-
बृजेश नीरज
Published in-
Nirjhar Times -
पहली पंक्ति के शब्द मुझे खूब स्पष्ट नही हो पाए,
ReplyDeleteशब्दों और विचारों का बहुत अच्छा समन्वय है जैसे कोहरा-धुआं
'अजायबघर' का प्रयोग भी प्रभावशाली है
जज्ब-ए-अमज़द - हौसला अफजाई
Deleteये कविता बार-बार पढ़ने का मन करता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा प्रयास है आपका