Monday, 1 April 2013

जागोगे तुम?


कुम्हार सो गया
थक गया होगा शायद

मिट़टी रौंदी जा रही है
रंग बदल गया
स्याह पड़ गयी

चाक घूम रहा है
समय चक्र की तरह
लगातार तेजी से
उस पर जमी
मिट्टी तेज धूप में
सूख गयी
उधड़ रही है
पपड़ियों के रूप में

पछुआ हवाओं के साथ
उड़कर आयी
रेत और किनकियां
चारों तरफ बिखरी हैं
रौशनी में चमकती हुई
उड़कर आंख में पड़ जाती है
जब तब
चुभती हैं

चारों तरफ बिखरे बर्तन
धीरे धीरे समय बीतने के साथ
टूटते जा रहे हैं
कच्चे और अधपके बर्तन
टूटकर मिट्टी में मिल गये
रेत और किनकियों के साथ

ठंडी पड़ती जा रही
भट्टी की आंच

अब बर्तन नहीं बचे
घर में
पानी पीने को भी

कुम्हार!
क्या जागोगे तुम?

जागो
इस आंच को तेज करो
उठाओ डंडी
घुमाओ यह चाक
इस रेत और किनकियों से इतर
तलाशो साफ मिट्टी
चढ़ा दो चाक पर
बना दो नए बर्तन
हर घर के लिए

ये सोने का समय नहीं।
         - बृजेश नीरज

5 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति और सार्थक संदेस.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...सादर..!

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    1. गुरूदेव आपका आभार!

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  3. बहुत प्रभावी शब्द ... संवेदनाएं बह रही हैं ...

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    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद!

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