आजकल गुवाहाटी कांड चर्चा में है। मीडिया इस कांड पर शर्म शर्म चिल्लाया तो बड़ी बड़ी हस्तियों से लेकर आम लोगों तक ने ब्लाॅग व सोशल नेटवर्किंग साइट पर हाय हाय की। फेसबुकिया संस्कृति में ’फ्लर्ट’ करते लोगों में समाज के प्रति कुछ जागरूकता नजर आई। पर इस घटना को ही लेकर इतना शोर शराबा क्यूं? क्या इसलिए कि सड़क पर 20 लड़कों ने एक लड़की को नंगा करने की कोशिश की? अगर ऐसा है तो वह लड़की तो भाग्यशाली थी कि पुलिस देर से ही सही फिर भी समय से पहुंच गयी वरना क्या होता कल्पना नहीं की जा सकती।
अभी उदयपुर में एक विवाहिता को सरेआम बेइज्जत होकर प्रेम करने की सजा भुगतनी पड़ी। उसे सारे गांव के सामने नंगा करके पीटा गया। वह निर्वस्त्र घंटों पड़ी रही। पुलिस को भी उसे बचाने के लिए विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन यह घटना बड़ी खबर नहीं बन पायी। इस घटना पर ’इतना सन्नाटा क्यों है भाई?’ यह स्वीाकर करना होगा कि गुवाहाटी की घटना चर्चा में आई क्योंकि इसका ’लाइव टेलीकास्ट’ किया गया। जो दिखता है वह बिकता है।
इस बाजारू संस्कृति के दौर में किसी इंसान की बेइज्जती भी तब महत्वपूर्ण हो पाती है जब मीडिया में खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में उसको कवरेज मिले। यह समाज की विसंगति ही है कि कोई मूर्ति टूटना तो लोगों को उद्वेलित कर देता है लेकिन एक जिंदा इंसान का उत्पीड़न, उसकी पीड़ा किसी के मन को नहीं कचोटता। दरअसल आज माॅल संस्कृति में सब कुछ बिकता है देह भी, रूप भी, दर्द भी, उत्पीड़न भी, दाग भी। आज का दौर कहता है कि 'दाग अच्छे हैं न'। यदि पैकेजिंग की कला मालूम है तो आप की बात भी बिकेगी, मुस्कान भी और दर्द भी।
यूं कहिए कि एक इत्तेफाक या साजिश के तहत गुवाहाटी कांड का वीडियो बनाया गया और उसे यूटयूब पर अपलोड कर दिया गया। उस वीडियो को देखकर लोगों का गुस्सा फूटा और सत्ता व प्रशासन को मजबूरी में सक्रियता दिखानी पड़ी। वरना ऐसी और इससे भी बदतर घटनायें रोज देश के किसी न किसी कोने में होती रहती हैं और सरकार व प्रशासन के कान में जूं तक नहीं रेंगती। ऐसी घटनाओं के प्रति पुलिस का रवैया भी अच्छा नहीं होता। उत्तर प्रदेश व आंध्र प्रदेश के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के बयान इस बात के प्रमाण हैं कि पुलिस ऐसी घटनाओं को कितने हल्के में लेती है। सरकार और प्रशासन का इन घटनाओं को रोकने के प्रति गंभीर न होना ही ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों का दुस्साहस बढाता है।
तेजाब हमले में घायल झारखण्ड की सोनाली मुखर्जी का नौ साल का लंबा संघर्ष इस बात का प्रमाण है कि सरकार का चरित्र कितना निर्दयी है; राजनेताओं को किसी पीड़ित का दर्द दिखायी नहीं देता। आज उस पर हमला करने वाले, उससे दुराचार करने वाले आजाद घूम रहे हैं और नौ साल का लंबा समय बीत जाने के बाद भी उसके शरीर के घाव अभी तक भर नहीं पाये, मन के घावों की बात तो छोड़िए। तभी तो जीवन से निराश और व्यवस्था से हताश सोनाली ने अपील की है कि या तो उसे इलाज की सुविधा उपलब्ध करायी जाए या फिर उसे मौत दे दी जाए। कानून व्यवस्था की लचरता से मिले शारीरिक घावों को भरने का दायित्व तो सरकार का है ही।
दुनिया की आधी आबादी अनादिकाल से पीड़ित और प्रताड़ित है। घर के पुरूष से लेकर हमलावरों तक ने उसे रौंदा है। आज भी नारी हर जगह, हर मोड, हर गली में अपमानित और नंगी की जा रही है। अखबारों में छपने वाली खबरें इस बात का प्रमाण हैं। बसों में सफर करते समय पुरूषों द्वारा छेड़खानी, राह चलते अश्लील फब्तियां और शीलहनन की कोशिशें महिलाओं के राजमर्रा के जीवन का हिस्सा हैं। स्कूल, आॅफिस, सिनेमाहाल, सड़क, ट्रेन, बस, टेम्पो कहीं भी लड़कियों की सुरक्षा की गारंटी नहीं है। ऊपर से सीनाजोरी यह कि स्त्री की सुरक्षा के नाम पर उसी पर सामाजिक प्रतिबंध लगाए जाते हैं जैसा कि उत्तर प्रदेश की एक खाप पंचायत ने अभी हाल में किया।
लंबे समय से स्त्री को पुरूष की संपत्ति के रूप में देखा गया है। तमाम सामाजिक आर्थिक बदलावों के बावजूद समाज में नारी की भोग्या की छवि और बलवती हुई है। विकास और भौतिकवाद के साथ आए नैतिक और सामाजिक अवमूल्यनन के चलते समाज में उच्छृंखलता बढ़ी है और यह उच्छृंखलता तब और खतरनाक हो जाती है जब मानसिकता मध्ययुगीन काल की हो। यह मान लेना चाहिए कि समाज की मानसिकता पूरी तरह से घृणित और विकृत हो गयी है।
महिलाएं अपने हितों के लिए जागरूक हुई हैं परन्तु पुरूष अपने दंभ में अभी भी स्त्री की बराबर की हिस्सेदारी को स्वीाकर नहीं कर पा रहा है। दुनिया की यह आधी आबादी समाज में अपने लिए जगह बनाने की जंग लड़ रही है। वह घर तथा समाज के दबाव और उत्पीड़नों का मुकाबला करते हुए बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही है। नारी आज भी उस वक्त का इंतजार कर रही है जब उसे उसका हक मिले, सम्मान का दर्जा मिले।
स्त्रियां अपने को स्वतंत्र और सुरक्षित समझ सकें इसके लिए कानून व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त बनाने की जरूरत है। अगर उनकी सामाजिक हैसियत बदलेगी तो उनके प्रति समाज का रवैया भी बदलेगा।
- बृजेश नीरज
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