आजकल राजनीति के गलियारों से लेकर मीडिया तक में इस बात की फुसफुसाहट जोरों पर है कि राहुल गांधी सरकार में महत्वपूर्ण पद पाने वाले हैं और वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जाने की संभावना है अर्थात् गांधी परिवार पर्दे के पीछे से बाहर निकल कर सीधे मंच पर काबिज होने जा रहा है और इस सम्भावना से प्रफुल्लित दिग्विजय सिंह से लेकर मनीष तिवारी तक सब मीठी गुदगुदी महसूस कर रहे हैं।
राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी की खिलाफत करने वालों को आज उनकी राजनैतिक समझ का कायल तो होना ही चाहिए जिसके चलते धीरे धीरे और खामोशी के साथ उन्होंने न केवल पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत की वरन् देश के लिए स्वयं को स्वीकार्य भी बनाया। साथ ही भारत के नंबर वन परिवार की गरिमा को बनाए रखते हुए अपनी संतान के लिए सत्ता के रास्ते सुलभ बना दिए। इटली में पालन पोषण होने के बावजूद सोनिया उस कुटिल भारतीय सास की तरह हैं जो कभी अपनी बहुओं के सामने अपने पत्ते नहीं खोलती और बहुएं आशंका और उम्मीद के बीच उसका मुंह ताकती रहती हैं।
राजीव गांधी की हत्या के उपरान्त सत्ता पर कब्जे को लेकर रार मची परन्तु परिवारवाद में विश्वास रखने वालों या यूं कहें कि वफादारों की जीत हुई। केंद्रित सत्ता में वफादारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है इसीलिए पुरूस्कृत भी होती है और खिलाफत का झंडा उठाने वालों को बख्शा नहीं जाता। जाहिर सी बात है विरोधियों को बख्शने का मतलब होता है सत्ता के विकेंद्रीकरण की सम्भावना या फिर समानान्तर सत्ता का उदय। भाजपा में नरेंद्र मोदी का उदय पार्टी में समानान्तर सत्ता का ही प्रतीक है। लेकिन विरोध को कुचलने का हुनर सोनिया ने इन्दिरा से जाने कैसे सीख ही लिया। यह सोनिया की कुटिल राजनीति का ही नतीजा है कि कभी उनकी खिलाफत का झंडा बुलंद करने वाले शरद पवार आज उनसे सरकार में नंबर दो की हैसियत देने के लिए याचना कर रहे हैं, ममता मौके बेमौके अपने मनचाहे सौदे करने 10 जनपथ पर हाजिर होती हैं और फिर मुंह की खाकर भुनभुनाती कलकत्ता वापस लौट जाती हैं तथा पी ए संगमा राष्ट्रपति चुनाव में औंधे मुंह गिरने से बिलबिलाए घूम रहे हैं। उस वक्त सोनिया की खिलाफत करने वाले आज या तो राजनीति के हाशिए पर हैं या फिर उन्हीं के इर्द गिर्द गाहे बगाहे चक्कर काट रहे हैं।
'विदेशी महिला' से 'भारत की सत्ता का केंद्र' बनने के इस पूरे दौर में सोनिया ने सुर में सुर मिलाने वाले लोगों की एक नयी फौज खड़ी कर ली। सीधे तौर पर सत्ता पर काबिज न होते हुए भी पार्टी और सरकार की नकेल अपने हाथों में रखना अपने आप में बहुत हुनर की बात है। सोनिया की सफलता का सबसे बड़ा कारण उनकी चुप्पी है। बुरे दिन हों या अच्छे दिन कभी भी सोनिया ने बयानबाजी वाली राजनीति नहीं की। जरूरत ही नहीं पड़ी होगी; बयानबाजी के लिए दिग्विजय और मनीष तिवारी जैसे लोग तो हैं ही जो कब किसे क्या कह दें कहा नहीं जा सकता। सोनिया ने जो भी किया सीधे क्रियात्मक रूप में किया। राजनीति की शतरंज पर वे एक खामोश लेकिन चतुर शिकारी की तरह नजर आती हैं जो पूरी शान्ति के साथ अपने सधे हुए कदम धीरे धीरे शिकार की तरफ बढ़ाता है। वे कभी जल्दबाजी में नहीं नजर आईं। वे जानती हैं कि इस देश में सशक्त विपक्ष का अभाव है और केंद्र की राजनीति में अपनी मौजूदगी के लिए लालायित छोटी पार्टियों के पास कांग्रेस का साथ देने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है इसलिए अगर कांग्रेस के अंदर का विरोध समाप्त कर दिया जाए तो एकछत्र राज स्थापित हो जाएगा और वही उन्होंने किया, वही कर रही हैं। नरसिम्हाराव से लेकर जगन तक विरोध के स्वर शांत किए।
स्वतन्त्रता उपरान्त गांधी जी ने जब कांग्रेस और देश की बागडोर नेहरू के हाथ सौंपी और उसके बाद सत्ता पर इन्दिरा जिस तरह काबिज हुईं एवं जिस ढंग से उन्होंने अपने को मजबूत व एक ताकतवर नेता के रूप मे स्थापित किया उसने कांग्रेस में गुलामी के दौर की उस मानसिकता को बलवती किया जिसमें चाटुकारिता और जी हुजूरी से अपने को सत्ता के करीब रखना और अपनी जेब भरना सुलभ रहता है। धीरे धीरे सत्ता के आसपास ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी और सत्ता व ताकत एक व्यक्ति के हाथ में केंद्रित होती चली गयी। आज सत्ता के आसपास ऐसे ही लोग हैं। जनता से जुड़े और जनता के हितों की बात करने वाले लोग दरकिनार होते चले गये।
मजेदार बात यह है कि कांग्रेस का यह गुर पिछले दो दशकों में उभरी राजनैतिक पार्टियों ने भी बखूबी सीखा। किसी भी पार्टी को देखिए जो सत्ता में या सत्ता के करीब है मूल रूप में यही प्रवृत्ति देखने को मिलेगी। आज एकाधिकार सम्पन्न पार्टियां ही वजूद में हैं और उन सबमें मुखिया को घेरे चाटुकारों की फौज मौजूद है जो अपनी चाटुकारिता पर पुरूस्कृत होती रहती है। जनता को भी स्वयं राज करना नहीं भाता उसे वही लोकतंत्र पसंद है जिसमें कोई उस पर राज करे-लोकराजतंत्र-जनता द्वारा चुना गया राजा।
एकाधिकारवाद और वंशवाद देश में फल फूल रहा है और जनता खुशी में मदमस्त है क्योंकि उसे इसके दूरगामी परिणामों का अभी आभास नहीं हो रहा है। जनता को आभास कराये भी तो कौन? मीडिया एक नितांत व्यवसाय में परिवर्तित हो गया है और वंशवाद की बीमारी से दूर दो प्रमुख पार्टियां कम्युनिस्ट और भाजपा वेंटिलेटर पर हैं जिसके चलते वे कुछ कहने सुनने में अक्षम हैं।
राहुल पदापर्ण से भले ही चाटुकार कांग्रेसी टीवी चैनलों पर खुशी से झूमते नजर आएं लेकिन इस देश की आम जनता में इसको लेकर कोई खुशी की लहर नहीं है। राहुल ढीले ढाले कुर्ता पायजामा में छुट्टी मनाने आए रईस से ज्यादा कुछ नहीं लगते जो इस दौरान लोगों से उनके दुख दर्द सुनकर एक नया अनुभव प्राप्त कर रहा है। अभी तक जनता को उनमें कोई उम्मीद की किरण नहीं दिखाई दी है। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे इसका साफ संकेत हैं।
दरअसल राहुल गांधी की छवि रईस मालिक के उस विदेशी बेटे जैसी है जो देश लौटने पर अपनी बूढ़ी नौकरानी के हाथ की बनी चाय की चुस्की के साथ बचपन की बातें शेयर करता है। यदि राहुल के अब तक के राजनैतिक सफर पर नजर डालें तो राहुल गांधी इसके अतिरिक्त कुछ और करते भी नजर नहीं आते। जनता को तो यह भी पता नहीं कि अमेठी और रायबरेली के दौरों के बाद वे गायब कहां हो जाते हैं। इस बात को समझना होगा कि किसी गरीब अछूत के घर रात गुजारना और देश चलाना दो अलग अलग बातें हैं। यदि यह योग्यता की श्रेणी मे आता है तो बेहतर होगा कि उसी गरीब को देश चलाने की जिम्मेदारी दे दी जाए क्योंकि यह योग्यता तो उसने पैदा होते ही हासिल कर ली थी। राहुल जनता के बीच रहकर भी जनता से दूर नजर आते हैं। उनमें न तो नेहरू जैसी योग्यता है और न इन्दिरा जैसी कुटिलता और न ही अटल जैसी शालीन राजनैतिक दृष्टि। वंशवाद के अतिरिक्त उनमें ऐसी कौन सी खूबी है जिसके कारण उनको 'सिंहासन' के योग्य समझा जाए या फिर मान लिया जाए कि मनमोहन की देश विदेश में किरकिरी होने के बाद सोनिया ने अपने बेटे को ही ’गुड्डा’ बनाना उचित समझा है। आखिर 'टाइम' पत्रिका और 'द इडिपेंडेंट' अखबार की टिप्पणियों के तुरंत बाद ही यह सुगबुगाहट क्यों शुरू हुई?
कारण जो कुछ भी हों लेकिन हकीकत यह है कि राहुल अब महत्वपूर्ण दायित्व संभालने जा रहे हैं यानी नेहरू-गांधी परिवार के एक नए चेहरे की ताजपोशी होने जा रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद यह नया चेहरा देश की दशा और दिशा को संभालेगा और महंगाई और कुशासन के दंश से त्रस्त इस देश की जनता को राहत दिलाएगा। उम्मीद है क्योंकि उम्मीद पर दुनिया कायम है और खासकर भारत तो कायम है ही। उम्मीद लेकर ही हर पांच साल पर इस देश का आम आदमी अपने राजा के नाम के आगे मुहर लगा आता है, उम्मीद पर ही अपने राजा की जय जयकार करता है, उम्मीद रखता है कि शायद राजा कभी उसकी ओर देखे। हालांकि होता कुछ भी नहीं फिर भी उम्मीद कायम रहती है। अब इस खबर के बाद यह देश फिर उम्मीद से पलक पांवड़े बिछाए खड़ा है नए राजा के स्वागत के लिए एक नयी उम्मीद के साथ कि शायद अबकी उम्मीद न टूटे। क्या ऐसा होगा?
- बृजेश नीरज
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