कैसे जानूं, किसको पहचानूं
हर चेहरा अनजाना है।
मैंने दी आवाज जिसे भी,
वो निकला बेगाना है।
सारी कसमें, सारे वादे
शब्दों की भूलभुलइया है।
दर्पण में दिखता हर चेहरा,
बस एक छलावा है।
साहिल छूटा, पतवार टूटा
नैया अब मझधार में है।
मुझको मुड़कर मत देखो,
तुमको तो एक सहारा है।
मैं तो एक भटका मुसाफिर
तेरा मेरा साथ कहां ?
जाओ तुम राह अपनी,
तुमको मंजिल पाना है।
- बृजेश नीरज
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