न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां वर्तमान देशकाल में आम आदमी की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए बिल्कुल सटीक लगती हैं। आज की सत्ता और ईलीट वर्ग इस देश की गरीब जनता को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं और ये दोनों ही आम आदमी को जीवन और विकास की रेस से बाहर धकिया देने की साजिश रच रहे हैं। दूसरी ओर यह आम आदमी दो वक्त की रोटी के जुगाड़ और अपने को सहेजने व समेटने की जद्दोजहद में कुछ इस तरह मशगूल है कि उसे अपने विरूद्ध की जाने वाली किसी साजिश का आभास ही नहीं है और अगर वह कुछ समझ भी पाता है तो जीने की कश्मकश में अपना पूरा पसीना निकाल चुकने के बाद स्वयं को किसी प्रतिक्रिया के लायक नहीं समझता। उसे तलाश होती है तो बस एक मसीहा की जो उसकी तरफ से उसका दर्द बयां कर सके; उसकी घुटी हुई आवाज सत्ता के गलियारों तक पहुंचा सके। शायद इसीलिए अन्ना की हुंकार पर इतने लोग दिल्ली की सड़कों पर उमड़ पड़े और शायद इसी वजह से केजरीवाल की खबरें लोग इतने चाव से सुनते हैं। शायद अन्ना और केजरीवाल में लोगों को यह उम्मीद दिखी कि वे जीने की चाह और ताकतवरों द्वारा न जीने देने के द्वंद के बीच पैदा हुई आम आदमी की बेचैनी, हताशा और दर्द को बयां कर सकें। एक आदमी बहुत होता है सच को सच साबित करने के लिए। अन्ना के समर्थन में दिल्ली की सड़कों पर उमडे़ जनसामान्य और केजरीवाल के लिए लोगों में पैदा हुई हमदर्दी की भले ही राजनेताओं ने अनदेखी की हो परन्तु ये संकेत हैं जनमानस में उमड़ते उबाल के और अगर इसकी इसी तरह अनदेखी की गयी, जनता के दर्द व तकलीफों को यूं ही नजरअंदाज किया गया तो परिणाम निश्चित रूप से सुखद नहीं होंगे।
टीवी पर दिखाए जाने वाले एक धारावाहिक में एक कलाकार कहता है कि आम आदमी तो पाँच साल में एक बार जिन्दा होता है शेष दिन तो सरकार के लिए वह मुर्दा है। बात सटीक लगी। राजनेता जब सत्तासीन होते हैं तो निरंकुश तानाशाह की तरह व्यवहार करते हैं। जनता पर उनके निर्णय, उनके काम का क्या असर पड़ेगा, इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं होती। इसका वर्तमान देशकाल से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है।
आंकड़े बताते हैं कि पांच मुख्य राज्यों में गरीबी से बदहाल लोगों की संख्या बढ़ रही है। भारत के 30 फीसदी जिलों में घनघोर दरिद्रता से उठता नक्सलवाद बढ़ता जा रहा है। आखिर कब तक आकंठ पैसे में डूबे हुए और भूख से मर रह लोग बगैर टकराव के साथ साथ रह सकते हैं। सत्ता द्वारा आम जनता के दर्द के प्रति बरती जा रही बेपरवाही से पैदा हो रही अशान्ति इस बात का संकेत है कि दुनिया के इस सबसे जटिल लोकतंत्र के सामने अब तक की सबसे पेचीदा चुनौती मुंह बाए खड़ी है।
विकासशील से विकसित देश बनने के प्रयास में जो असावधानियां हुईं उनका परिणाम आज देश भुगत रहा है। यँ भी विकास का यह सफर अपनी राह से भटक चुका है। कारण- अपरिपक्व व दिशाहीन राजनैतिक सोच तथा गैरजिम्मेदार अफसरशाही। पिछले एक दशक में विश्व के सामरिक, राजनैतिक व आर्थिक परिदृश्य में भारत की स्थिति न केवल कमजोर हुई है बल्कि छवि भी धूमिल हुई है। विकसित दिखने के ढोंग में सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष, विश्व बैंक व अमेरिका के सामने जिस तरह घुटने टेके हैं वह राजनैतिक सोच व आत्मनिर्भरता के दावों की कलई खोलता है। चीन और जापान जैसे देशों ने अपना विकास अपने संसाधनों व जनशक्ति के बलबूते किया है इसीलिए आज वे भारत की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। जबकि 65 वर्ष के लम्बे सफर में इस देश की सरकार ने अपने संसाधनों को विकसित करने व जनशक्ति का सकारात्मक उपयोग करने का कोई प्रयास नहीं किया। लघु व कुटीर उद्योगों की अनदेखी की गयी क्योंकि हमारी सरकार व अफसरशाही सदैव सामंतवादी सोच वाली रही है। परिणाम है कि देश के किसानों, बुनकरों तथा अन्य छोटे उद्योगों में लगे कारीगरों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है और अधिकांश कुटीर उद्योग बन्द होने और क्षेत्रीय कलायें लुप्त होने की कगार पर हैं।
देश संकट में है- संकट है अराजकता व अस्थिरता का। एक तरफ चीन और पाकिस्तान जहाँ देश के नक्शे को छोटा करने का लगातार प्रयास करते रहते हैं वहीं दूसरी ओर नक्सलवादी आंदोलन लगातार लंबा व चैड़ा होता जा रहा है; एक ओर रूपए की औकात डाॅलर के मुकाबले कमजोर हो रही है तो दूसरी ओर आम आदमी के लिए अपनी दिहाड़ी से पेट पालना मुश्किल हो रहा है लेकिन सरकार इन सबसे कतई चिंतित नजर नहीं आती। सरकार अपनी अराजकता में मस्त हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज के हालात के लिए दोष किसे दें- मंत्री जिनके पास शक्तियां तो हैं पर जवाबदेही नहीं या फिर प्रधानमंत्री जिनके पास जिम्मेदारी तो है पर शक्तियां नहीं। बेईमानी के पहाड़ की चोटी पर बैठा ईमानदार व्यक्ति। शायद उनको ही इस पद पर बार बार इसीलिए बैठाया जाता है कि वे शक्ति के बिना भी जिम्मेदारी का वहन कर सकते हैं। अच्छी मां वही होती है जो अपने बच्चों की क्षमताओं को समझ सके और तदनुसार उन्हें जिम्मेदारी दे। भाजपा की दिनोंदिन जो दुर्गति हो रही है उसका कारण शायद यही है कि उसके पास ऐसी मां नहीं है।
वास्तविकता यह है कि आज देश को कुछ ऐसे छुटभैये रणनीतिकार चला रहे हैं जो ये भूल चुके हैं कि सही कदम उठाना क्या होता है। उनके पास न तो इतिहास के अनुभवों का प्रकाश है और न ही भविष्य के लिए दृष्टि। नेताओं का जमीनी जुड़ाव समाप्त हो चुका है। तभी तो सरकार कहती है कि रू 28 से कम कमाई वाला व्यक्ति ही गरीब माना जा सकता है। झोला लेकर बाजार जाइए पता चलेगा कि 28 रूपए में कितना सामान मिलता है।
सरकार की चिंता है कि सब्सिडी कैसे और कितनी जल्दी समाप्त की जाए? अजब इत्तेफाक है कि कांग्रेस के शासनकाल में ही सब्सिडी की बैसाखी जनता को दी गयी और अब कांग्रेस शासन में ही इसे छीनकर कहा जा रहा है कि पैर नहीं हैं तो घिसटकर चलो; नहीं खरीद सकते तो अरहर नहीं मटर की दाल खाओ मगर दाम कम नहीं होंगे। गरीब शादी ब्याह में अरहर दाल खायें। मगर दिक्कत यह है कि गरीब खाये तो क्या खाये? खाने की चीजों के दाम तो उसकी जेब के आकार से भी बड़े हो चुके हैं। सब्सिडी समाप्त करना समय की आवश्यकता हो सकती है मगर इसका तरीका और रफ्तार निश्चित तौर पर गलत है। इसके अतिरिक्त जिस तरह कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी हुई हैं उससे सीधे तौर पर सरकार की नीयत और कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगा है। यह स्पष्ट है कि कीमतों में इतना बड़ा उछाल सब्सिडी समाप्त करने के प्रयासों का नतीजा नहीं है। उदाहरणार्थ पिछली बार पेट्रोल की कीमतों में की गई जबरदस्त बढ़ोत्तरी के पीछे सब्सिडी का रोना रोया गया परन्तु सरकार यह सच छुपा गयी कि दरअसल उस बढ़ोत्तरी में एक महत्वपूर्ण योगदान सरकार द्वारा पेट्रोल कंपनियों पर लगाए गए भारी भरकम करों का भी था। आखिर सरकार यह क्यों नहीं स्पष्ट करना चाहती कि ऐसी कौन सी मुसीबत आन पड़ी कि हर चीज की कीमत में इन सात आठ सालों में तीन गुना या अधिक की बढ़ोत्तरी हो गयी।
आज के राजनैतिक दल उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र में निष्ठा रखने वाले भारतीय को निराश करते हैं। आज धर्मनिरपेक्षता
का अर्थ सिर्फ बीजेपी व आरएसएस का विरोध तथा मुस्लिमों का तुष्टीकरण और समतामूलक समाज का अर्थ दलितों को विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक आरक्षण देना मात्र रह गया है। ये राजनैतिक दलों की मजबूरी भी है क्योंकि उनके पास इसके अतिरिक्त कोई अन्य विचारधारा या कार्यक्रम नहीं रह गया है। आज कमजोर व विभाजित विपक्ष, वामपंथी ताकतों के लगातार कमजोर होते जाने तथा धर्मांध, जातीवादी व कट्टरतावादी ताकतों की मजबूती के चलते स्थिति और भी गंभीर हो चली है। इसने सत्ताधारी पक्ष को और भी निरंकुश बना दिया है और यह निरंकुशता तब है जब सत्ताधारी पक्ष स्वयं विभाजित है और जब तब टूटन की कगार पर पहुंच जाता है।
इस देश के महान नेताओं ने धर्म, जाति, भाषा जैसी खाइयों को पाटते हुए भारत को जो संवैधानिक शक्ल दी थी आज के राजनेता अपनी सत्तालोलुप राजनीति के कारण अब इन्हीं दरारों को फिर से उभार रहे हैं। ये लोग बस चुनावी लाभ हानि का गुणा भाग किया करते हैं। ये देश की जनता के उस बड़े भाग को हताश करते हैं जिसकी विवादों में कोई रूचि नहीं। इस राजनैतिक दिवालिएपन से उत्पन्न खाली स्थान पर विकृत और विषैली विचारधाराएं कब्जा जमाती जा रही हैं। इन सबके लिए भारतीय कुलीन वर्ग भी उत्तरदायी है जो आज 1920 के अमेरिकी कुलीन वर्ग की तरह शान-ओ-शौकत और शराब के नशे में डूबा हुआ है।
यथास्थितिवाद एक ‘कम्फर्ट’ का एहसास देता है और लोग इस ‘कम्फर्ट’ की स्थिति से स्वयं को बाहर लाने का रिस्क नहीं लेना चाहते। यथास्थितिवाद यह सिखाता है कि जो जैसा चल रहा है वही बेहतर है इससे अच्छा इन परिस्थितियों में और कुछ नहीं हो सकता है। इस यथास्थितिवादी मानसिकता से इस देश का कुलीन वर्ग और आम जन सब ग्रसित हैं। किसी को यह एहसास ही नहीं कि वास्तव में पैरों के नीचे की जमीन दरक चुकी है और अगर इस खुमारी से न जागे तो सब इन दरारों में समा जाएंगे। सच को अगर सामने न लाया जाए तो झूठ खतरनाक रूप लेने लगता है और अराजकता घर करने लगती है। आज के इस बेहद निराश और हताश करने वाले राजनीतिक और सामाजिक माहौल को बदलने के लिए लोगों को आगे आना ही होगा। यह समझना होगा कि राजनेता हमारे शासक नहीं हैं। उन्हें जनता के हितों की रक्षा करने के लिए चुना जाता है। राजनैतिक सुधारों के बगैर आर्थिक सुधार बेमानी हैं। राजनेताओं की जनता के प्रति जवाबदेही तय करनी ही होगी।
पक गई हैं आदतें, बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो, ऐसे गुजर होगी नहीं ।
ہو گئی ہے پیر پہاڑ سی
نہ
ہو قمیض تو گھٹنوں سے پیٹ ڈھک لیں گے
یہ
لوگ کتنے مناسب ہے اس سفر کے لئے.
دشيت
کمار کی یہ سطریں موجودہ دےشكال میں عام آدمی کی حالت کو واضح کرنے کے لئے بالکل
درست لگتی ہیں. آج کی اقتدار اور يليٹ طبقے اس ملک کی غریب عوام کو دوسرے درجے کا
شہری سمجھتے ہیں اور یہ دونوں ہی عام آدمی کو زندگی اور ترقی کی دوڑ سے باہر دھكيا
دینے کی سازش رچ رہے ہیں. دوسری طرف یہ عام آدمی دو وقت کی روٹی کے جگاڑ اور اپنے
کو سهےےےےجنے اور سمیٹنے کی جدوجہد میں کچھ اس طرح مصروف ہے کہ اسے اپنے خلاف كيے
جانے والی کسی سازش کا احساس ہی نہیں ہے اور اگر وہ کچھ سمجھ بھی پاتا ہے تو جینے
کی كشمكش میں اپنا مکمل پسینہ نکال چكنے کے بعد خود کو کسی رد عمل کے قابل نہیں
سمجھتا. اسے تلاش ہوتی ہے تو بس ایک مسیحا کی جو اس کی طرف سے اس کا درد بیان کر
سکے؛ اس کی گھٹي ہوئی آواز اقتدار کے ایوانوں تک پہنچا سکے. شاید اسی لیے انا کی
ہنکار پر اتنے لوگ دہلی کی سڑکوں پر امڈ پڑے اور شاید اسی وجہ سے كےےجريوال کی خبریں
لوگ اتنے چاو سے سنتے ہیں. شاید انا اور كےجريوال میں لوگوں کو یہ امید نظر آئی کہ
وہ جینے کی چاہ اور تاكتورو دوارا نہ جینے دینے کے دود کے درمیان پیدا ہوئی عام
آدمی کی بے چینی، مایوسی اور درد کو بیان کر سکیں. ایک آدمی بہت ہوتا ہے سچ کو سچ
ثابت کرنے کے لئے. انا کی حمایت میں دہلی کی سڑکوں پر امڈے़ جنساماني اور كےجريوال کے لئے لوگوں میں پیدا ہوئی ہمدردی کی بھلے ہی سیاستدانوں
نے نظر انداز کیا ہو لیکن یہ اشارہ ہیں جنمانس میں امڑتے ابال کے اور اگر اس کی اس
طرح نظر انداز کی گئی، عوام کے درد و تكليپھو کو یوں ہی نظر انداز کیا گیا تو
نتائج یقینا خوش نہیں ہوں گے.
ٹی وی
پر دکھائے جانے والے ایک سیریل میں ایک فنکار کہتا ہے کہ عام آدمی تو پانچ سال میں
ایک بار زندہ ہوتا ہے باقی دن تو حکومت کے لئے وہ مردہ ہے. ़ بات درست لگی. سیاسی لیڈر جب حکمراں ہوتے ہیں تو تانا شاہ ڈکٹیٹر کی طرح
برتاؤ کرتے ہیں. عوام پر ان کے فیصلے، ان کے کام کا کیا اثر پڑے گا، اس کی انہیں
کوئی پرواہ نہیں ہوتی. اس کا موجودہ دےشكال سے بہتر مثال اور کیا ہو سکتا ہے.
اعداد
و شمار بتاتے ہیں کہ پانچ اہم ریاستوں میں غربت سے بدحال لوگوں کی تعداد بڑھ رہی
ہے. بھارت کے 30 فیصد اضلاع میں گھنگھور دردرتا سے اٹھتا نکسلزم بڑھتا جا رہا ہے.
آخر کب تک اكٹھ پیسے میں ڈوبے ہوئے اور بھوک سے مر رہ لوےگ بغیر اختلاف کے ساتھ
ساتھ رہ سکتے ہیں. اقتدار کی طرف سے عوام کے درد کے تئیں برتی جا رہی بےپرواهي سے
پیدا ہو رہی اشانت اس بات کا اشارہ ہے کہ دنیا کے اس سب سے پیچیدہ جمہوریت کے
سامنے اب تک کی سب سے پیچیدہ چیلنج منہ بائے کھڑی ہے.
ترقی
پذیر سے ترقی یافتہ ملک بننے کی کوشش میں جو اساودھانيا ہوئیں ان کا نتیجہ آج ملک
بھگت رہا ہے. يو بھی ترقی کا یہ سفر اپنی راہ سے بھٹک چکا ہے. وجہ - اپرپكو اور
دشاهين سیاسی سوچ اور گےرجممےدار اپھسرشاهي. گزشتہ ایک دہائی میں دنیا کے سٹریٹجک،
سیاسی اور اقتصادی تناظر میں بھارت کی صورتحال نہ صرف کمزور ہوئی ہے بلکہ تصویر بھی
دھومل ہوئی ہے. تیار نظر آنے کے ڈھونگ میں حکومت نے بین الاقوامی مالیاتی فنڈ،
عالمی بینک اور امریکہ کے سامنے جس طرح گھٹنے ٹےكے ہیں وہ سیاسی سوچ اور
اتمنربھرتا کے دعووں کی كلي کھولتا ہے. چین اور جاپان جیسے ممالک نے اپنی ترقی
اپنے وسائل اور جن شکتی کے بلبوتے کیا ہے اس لئے آج وہ بھارت کے مقابلے میں بہتر
حالت میں ہیں. جب کہ 65 سال کے طویل سفر میں اس ملک کی حکومت نے اپنے وسائل کو ترقی
دینے اور جن شکتی کا مثبت استعمال کرنے کی کوئی کوشش نہیں کی. مکمل اور چھوٹی صنعتوں
کو نظر انداز کیا گیا کیونکہ ہماری حکومت اور اپھسرشاهي ہمیشہ سامتوادي سوچ والی
رہی ہے. نتیجہ ہے کہ ملک کے کسانوں، بنکروں اور دیگر چھوٹے صنعتوں میں لگے افراد کی
حالت انتہائی قابل رحم ہے اور زیادہ تر چھوٹی انڈسٹری بند ہونے اور علاقائی كلايے
ختم ہونے کے راستے پر ہیں. ں
ملک
بحران میں ہے - بحران ہے لاقانونیت اور عدم استحکام کا. ایک طرف چین اور پاکستان
جہاں ملک کے نقشے کو چھوٹا کرنے کی مسلسل کوشش کرتے رہتے ہیں وہیں دوسری طرف نکسلی
تحریک مسلسل طویل اور چےڑا ہوتا جا رہا ہے؛ ایک اور روپے کی اوقات ڈالر کے مقابلے
میں کمزور ہو رہی ہے تو دوسری طرف عام آدمی کے اپنی دہاڑی سے اپنا پیٹ پالنا مشکل
ہو رہا ہے لیکن حکومت ان سب سے قطعی فکر مند نظر نہیں آتی. حکومت اپنی لاقانونیت میں
مست هے. سب سے بڑا مسئلہ یہ ہے کہ آج کے حالات کے لئے قصور کسے دےے - وزیر جن کے
پاس طاقتیں تو ہیں پر جواب دہی نہیں یا پھر وزیر اعظم جن کے پاس ذمہ داری تو ہے پر
طاقتیں نہیں. بے ایمانی کے پہاڑ کی چوٹی پر بیٹھا ایماندار شخصیت. شاید ان کو ہی
اس عہدے پر بار بار اس لئے بٹھایا جاتا ہے کہ وہ طاقت کے بغیر بھی ذمہ داری کا
برداشت کر سکتے ہیں. اچھی ماں وہی ہوتی ہے جو اپنے بچوں کی صلاحیتوں کو سمجھ سکے
اور تدنسار انہیں ذمہ داری دے. بی جے پی کی دن بہ دن جو حالت ہو رہی ہے اس کی وجہ
شاید یہ ہے کہ اس کے پاس ایسی ماں نہیں ہے.
حقیقت
یہ ہے کہ آج ملک کو کچھ ایسے چھٹبھےيے حکمت عملی بنانے چلا رہے ہیں جو یہ بھول چکے
ہیں کہ صحیح قدم اٹھانا کیا ہوتا ہے. ان کے پاس نہ تو تاریخ کے تجربات کی روشنی ہے
اور نہ ہی مستقبل کے لئے نظر. رہنماؤں کا زمینی تعلق ختم ہو چکا ہے. تبھی تو حکومت
کہتی ہے کہ رو 28 سے کم کمائی والا شخص ہی غریب تصور کیا جا سکتا ہے. جھولا لے کر
بازار جائیے معلوم ہو کہ 28 روپے میں کتنا سامان ملتا ہے.
حکومت
کی فکر ہے کہ سبسڈی کس طرح اور کتنی جلدی ختم کی جائے؟ عجب اتفاق ہے کہ کانگریس کے
دور اقتدار میں ہی سبسڈی کی بےساكھي عوام کو دی گئی اور اب کانگریس حکومت میں ہی
اسے چھينكر کہا جا رہا ہے کہ پیر نہیں ہیں تو گھسٹكر چلو؛ نہیں خرید سکتے تو ارہر
نہیں مٹر کی دال کھاؤ مگر دام کم نہیں ہوں گے. غریب شادی بیاہ میں ارہر دال کھائیں.
مگر دقت یہ ہے کہ غریب کھائے تو کیا کھائے؟ کھانے کی چیزوں کے دام تو اس کی جیب کے
سائز سے بھی بڑے ہو چکے ہیں. سبسڈی ختم کرنا وقت کی ضرورت ہو سکتی ہے مگر اس کا طریقہ
اور رفتار یقینی طور پر غلط ہے. اس کے علاوہ جس طرح قیمتوں میں مسلسل اضافہ ہوا ہے
اس سے براہ راست طور پر حکومت کی نیت اور طریقہ کار پر سوالیہ نشان لگا ہے. یہ
واضح ہے کہ قیمتوں میں اتنا بڑا اچھال سبسڈی ختم کرنے کی کوششوں کا نتیجہ نہیں ہے.
مثال کے طور پر پچھلی بار پیٹرول کی قیمتوں میں کی گئی زبردست اضافہ کے پیچھے سبسڈی
کا رونا رویا گیا لیکن حکومت یہ سچ چھپا گئی کہ دراصل اس اضافے میں ایک اہم رول
حکومت کے ذریعہ پٹرول کمپنیوں پر لگائے گئے بھاری بھرکم ٹیکس کا بھی تھا. آخر
حکومت یہ کیوں نہیں ظاہر کرنا چاہتی ہے کہ ایسی کون سی مصیبت آن پڑی کہ ہر چیز کی
قیمت میں ان سات آٹھ سالوں میں تین گنا یا اس سے زیادہ کا اضافہ ہو گیا.
آج
کے سیاسی جماعت لبرل، سیکولر اور جمہوریت میں مخلص رکھنے والے بھارتی کو مایوس
کرتے ہیں. آج سیکولرزم کا مطلب صرف بی جے پی اور آر ایس ایس کی مخالفت اور
مسلمانوں کا تشٹیکرن اور سمتامولك سماج کا مطلب دلتوں کو مختلف شعبوں میں زیادہ سے
زیادہ ریزرویشن دینا ہی رہ گیا ہے. یہ سیاسی جماعتوں کی مجبوری بھی ہے کیونکہ ان
کے پاس اس کے علاوہ کوئی اور نظریات یا پروگرام نہیں رہ گیا ہے. آج کمزور اور تقسیم
حزب اختلاف، بائیں بازو کی طاقتوں کے مسلسل کمزور ہوتے جانے اور دھرمادھ، جاتيوادي
اور كٹٹرتاوادي طاقتوں کی مضبوطی کی وجہ سے صورتحال اور بھی سنگین ہو چلی ہے. اس
نے حکمراں پارٹی کو اور بھی تانا شاہ بنا دیا ہے اور یہ نركشتا تب ہے جب حکمراں
پارٹی خود تقسیم ہے اور جب وقت ٹوٹن کے دہانے پر پہنچ جاتا ہے.
اس
ملک کے عظیم لیڈروں نے مذہب، ذات، زبان جیسی كھايو کو پاٹتے ہوئے بھارت کو جو آئینی
شکل دی تھی آج کے سیاسی لیڈر اپنی ستتالولپ سیاست کی وجہ سے اب انہیں درارو کو پھر
سے ابھار رہے ہیں. یہ لوگ بس انتخابی نفع و نقصان کا گنا حصہ دیا کرتے ہیں. یہ ملک
کے عوام کے اس بڑے حصہ کو مایوس کرتے هے جس تنازعات میں کوئی دلچسپی نہیں. اس سیاسی
دوالےپن سے پیدا خالی جگہ پر وكرت اور وشےلي وچاردھاراے قبضہ جماتي جا رہی ہیں. ان
سب کے لئے ہندوستانی امیر طبقہ بھی ذمہ دار ہے جو آج 1920 کے امریکی امیر طبقے کی
طرح شان - و - شوکت اور شراب کے نشے میں ڈوبا ہوا ہے.
يتھاستھتواد
ایک 'كمپھرٹ' کا احساس کرتا ہے اور لوگ اس 'كمپھرٹ' کی حیثیت سے خود کو باہر لانے
کا رسک نہیں لینا چاہتے. يتھاستھتواد یہ سکھاتا ہے کہ جو جیسا چل رہا ہے وہ بہتر
ہے اس سے اچھا ان حالات میں اور کچھ نہیں ہو سکتا ہے. اس يتھاستھتوادي ذہنیت سے اس
ملک کا امیر طبقہ اور عام عوام سب گرست ہیں. کسی کو یہ احساس ہی نہیں کہ اصل میں پیروں
کے نیچے کی زمین درك چکی ہے اور اگر اس كھماري سے نہ جاگے تو سب ان درارو میں سما
جائیں گے. سچ کو اگر سامنے نہ لایا جائے تو جھوٹ خطرناک شکل اختیار کرنے لگتا ہے
اور لاقانونیت گھر کرنے لگتی ہے. آج کے اس انتہائی مایوس اور مایوس کرنے والے سیاسی
اور سماجی ماحول کو تبدیل کرنے کے لئے لوگوں کو آگے آنا ہی ہوگا. یہ سمجھنا ہوگا
کہ سیاسی لیڈر ہمارے حکمران نہیں ہیں. انہیں عوام کے مفادات کا تحفظ کرنے کے لیے
منتخب کیا جاتا ہے. سیاسی اصلاحات کے بغیر معاشی اصلاحات بے معنی ہیں. سیاستدانوں
کی عوام کے تئیں جواب دہی طے کرنی ہی ہوگی.
پک
گئی ہیں عادات، باتوں سے سر ہوں گی نہیں،
کوئی
ہنگامہ کرو، ایسے گزر ہوگی نہیں.
-
برجےش نیرج
Published in-
Nirjhar Times
Waris-e-Avadh - 23.12.2012
Published in-
Nirjhar Times
Waris-e-Avadh - 23.12.2012
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