Thursday, 16 August 2012

बुतों का शहर


     



किसे दें आवाज कौन सुनेगा
यहां हर शख्स सोया हुआ है

बुतों के शहर में इंसां ढूंढते हैं
लगता है कुछ वहम सा हुआ है

कैसे पहचानें अपना पराया
नकाबों में चेहरा छुपाया हुआ है

चेहरों की रंगत उड़ी़ उड़ी सी
हर शख्स नजरें चुराता हुआ है

वफा की उम्मीद किससे करें अब
उनका मिजाज़ बदला हुआ है

पूछता है मा़झी पता साहिल का
लहरों का भी रुख बदला हुआ है

बगीचे के फूलों में खुशबू नहीं है
हवा में चलन कुछ ऐसा हुआ है

                          -बृजेश नीरज

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