तुम्हारे घर सुना
सबेरा बहुत है
यहां रात बीती
अंधेरा बहुत है
समय की हैं
बातें सबेरे-अंधेरे
कहीं नींद कहीं
रतजगा बहुत है
तुम्हें मिलते हैं
साथी बहुत से
हमें तन्हाई का सहारा
बहुत है
याद करना और
आंसू बहाना
वक्त बिताने का बहाना
बहुत है
कभी तो निकलोगे रस्ते हमारे
दीदार का ये
आसरा बहुत है
मिलना तो कहना
भुलाया नहीं था
जीने के लिए
ये फसाना बहुत
है
- बृजेश नीरज
Really sir,ur words r more chizelled and polished now.
ReplyDeleteAttractive rhythm and flow...
In fact it is atleast 3 years old poem. I refined it now.
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