Tuesday, 2 April 2013

नज़्म/ कुछ आराम हो


धीरे धीरे शाम उतर आयी
धरती पर
मेरा इंतजार अभी बरकरार है
कि कब तेरा दीदार हो
और मेरी सुब्ह हो

तेरा जज्ब-ए-अमजद
या चाहत का असर
ओढ़ता बिछाता हूं तुझको
तुझसे ही दिन हो
और मेरी रात हो

तुमने सोचा नहीं
होगा कोई इंतजार में
पथराने लगी आंखें किसी की
तू नजर आए
तो मुझे कुछ आराम हो।
             - बृजेश नीरज

13 comments:

  1. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,आभार.

    ये पैगाम तो एक बहाना हैं !
    इरादा तो आपको हमारी याद दिलाना हैं !!
    आप याद करे या न करे कोई बात नहीं !
    पर आपकी याद आ रही हैं बस इतना बताना हैं !!

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    1. वाह राजेन्द्र जी! आपकी पंक्तियां बहुत सशक्त हैं। बहुत खूब! आपका आभार!

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...सादर..!

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  3. ये इंतज़ार भी कितना तक़लीफ़ देता है...
    अच्छी रचना!
    ~सादर!!!

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  4. आदरणीय श्रीबिजेशजी,

    बहुत बढ़िया रचना है," तू नजर आये तो मुझे कुछ आराम हो.." बहुत अच्छा जी, ऐसेही लिखते रहिए और आनंद बांटते रहिए, घन्यवाद।

    मार्कण्ड दवे।

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