Wednesday, 16 January 2013

रचना - साये


वो मुतमइन थे कि सुब्ह नहीं होगी
मैं बेकरार हूं एक किरन के लिए

साहिल तलाशता है ठौर और कोई
लहरें मचलती है मिलन के लिए

वो फूल खिला और मुरझा भी गया
मयस्सर नहीं गुलिस्तां महक के लिए

एक पत्थर था जो भगवान बन बैठा
घंटियां बजती हैं उसके जागरन के लिए

उनकी नजरों में कुछ बात जरूर होगी
जो लोग तरसते हैं इनायत के लिए

गहराते हैं साये धूप खिलने के साथ
रौशनी कम है अंधेरे की शिकायत के लिए

अपना चेहरा भी आईने में देखते होंगे
गालियां दे रहे हैं जो औरों के लिए
                                        - बृजेश नीरज
Published in -
Rachanakar

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