यहां हर शख्स सोया हुआ है
बुतों के शहर में इंसां ढूंढते हैं
लगता है कुछ वहम सा हुआ है
कैसे पहचानें अपना पराया
नकाबों में चेहरा छुपाया हुआ है
चेहरों की रंगत उड़ी़ उड़ी सी
हर शख्स नजरें चुराता हुआ है
वफा की उम्मीद किससे करें
उनका मिजाज़ बदला हुआ है
पूछता है मा़झी पता साहिल का
लहरों का भी रुख बदला हुआ है
बगीचे के फूलों में खुशबू नहीं है
हवा में चलन कुछ ऐसा हुआ है
- बृजेश नीरज
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Nirjhar Times
Sir apki ye poem mujhe sabse achi lgne wali poems me sel hai.
ReplyDeleteRealy nice concept in the present reference
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