Thursday 3 January 2013

रचना - बुतों का शहर




किसे दें आवाज कौन सुनेगा
यहां हर शख्स सोया हुआ है

बुतों के शहर में इंसां ढूंढते हैं
लगता है कुछ वहम सा हुआ है

कैसे पहचानें अपना पराया
नकाबों में चेहरा छुपाया हुआ है

चेहरों की रंगत उड़ी़ उड़ी सी
हर शख्स नजरें चुराता हुआ है

वफा की उम्मीद किससे करें 
उनका मिजाज़ बदला हुआ है

पूछता है मा़झी पता साहिल का
लहरों का भी रुख बदला हुआ है

बगीचे के फूलों में खुशबू नहीं है
हवा में चलन कुछ ऐसा हुआ है

                          - बृजेश नीरज

Published in-
Nirjhar Times

3 comments:

  1. Sir apki ye poem mujhe sabse achi lgne wali poems me sel hai.
    Realy nice concept in the present reference

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  3. Thanks! I would like to see your comments on my other writings too.

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