Sunday, 9 December 2012

चिट्ठी



प्रिय मित्रों,
राजनैतिक अराजकता और महंगाई की मार के बीच दिन प्रतिदिन सिकुड़ती सिमटती जा रही जीने की सम्भावनाओं के बीच मेरी तरह शायद हर व्यक्ति के मन में यही यक्ष प्रश्न होगा कि क्या एक आम हिन्दुस्तानी का जीवन स्तर कभी सुधर पाएगा? क्या ऐसा कोई इंजेक्शन इजात किया जा सकेगा जो महंगाई की मार से त्रस्त हमारे परिवार को बादाम की ताकत दे पाए? क्या स्त्रियां घर में और घर के बाहर स्वतंत्र और सुरक्षित रह पायेंगी? क्या रसोई गैस के सिलेंडर के नीचे दबा आदमी बाहर निकल पाएगा? क्या हम और हमारा परिवार इस देश और प्रदेश में सुरक्षित जीवन जी पायेंगे? क्या लोकतंत्र के नाम पर अराजकता का माहौल बदलेगा? क्या.......... और जाने कितने क्या हैं हमारे और आपके मन में, जिनका उत्तर हम निरंतर ढूंढने का प्रयास करते रहते हैं इस सत्य से मिज्ञ होते हुए भी कि सभीक्याका उत्तरनहींही है। वीरेन्द्र आस्तिक के शब्दों में......
नीड़ जले पर
बुझ सके हैं
उजड़े घर फिर
बस सके हैं
मोहभंग है
इस जंगल से
टूटा सपना
! सुगना
लेकिन यह हमारी प्रवृत्ति भी है कि अपने प्रश्नों के उत्तर जानते हुए भी उन्हें ढूंढने का सतत प्रयास करते रहते हैं कि- शायद ईश्वर, राजनेता या नौकरशाहों की कृपा से हमें कभी कहीं थोड़ा सी राहत मिल जाए। हमारी प्रवृत्ति है कि अपने प्रश्नों के उत्तरों के लिए हम दूसरों पर निर्भर हैं स्वयं प्रयास नहीं करते। इसी का परिणाम है कि हमें जो कुछ भी परोसा जाता है उसे ही, उसी रूप में हम स्वीकार कर लेते हैं बिना किसी परिवर्तन के प्रयास के। इसी प्रवृत्ति का लाभ हमारे नौकरशाह और राजनेता उठाते हैं और हमें और आपको दीन-हीन, लाचार समझते हैं और उसी तरह से व्यवहार करते हैं।
ऐसे समय में जब आतंकवार हमारी जिन्दगी को बदरंग करने पर आमदा है, राजनेता हमें धर्म, जाति, क्षेत्र के नाम पर बांटकर अपनी कुर्सी को जकड़े रहना चाहते हैं, जेबें भरना ही जब नौकरशाहों का एकमात्र लक्ष्य रह गया हो, ’भारतऔरइण्डियाका फर्क गहराता जा रहा हो, आवश्यकता है हमारे सृजनात्मक प्रयास की, जो माहौल को बदले। मुक्तिबोध के शब्दों में........
अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे
ढहाने ही होंग मठ और गढ़ सब।
                                      - बृजेश नीरज


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