Thursday 18 April 2013

हाथी


हांफता कांपता सा
हाथी भागा जा रहा था
चीखता हुआ
वो निकाल लेना चाहते हैं
मेरे दांत
सजाएंगे उन्हें
अपने दीवानखाने में
मूर्तियां बनाकर
जैसे पेड़ों को छीलकर
बना डालीं फाइलें
और प्रेमपत्र।
             - बृजेश नीरज

7 comments:

  1. उस हाथी को पता है इंसान के शौंक दूसरों के जिस्म से हो के पूरे होते हैं ...

    ReplyDelete
  2. वाह! गागर मे सागर।
    respected sir alka ws praising lot ur this poem seeing on facebook,bt then i hvn't seen it.really she is right.

    ReplyDelete
  3. Aaj kl to logo ko bhi sjawat ki tarah sath me rakha jata h:)
    nice poem!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आप चर्चा में तो थे आज आपकी उपस्थिति से मन प्रसन्न हुआ।

      Delete

कृपया ध्यान दें

इस ब्लाग पर प्रकाशित किसी भी रचना का रचनाकार/ ब्लागर की अनुमति के बिना पुनः प्रकाशन, नकल करना अथवा किसी भी अन्य प्रकार का दुरूपयोग प्रतिबंधित है।

ब्लागर