देख धनी बलवान
के, चिकने चिकने पात।
दुखिया दीन
गरीब के, खुरदुर चिटके पात।।
दुखिया सब संसार
है, सुख ढूंढन को जाय।
दूजों का जो
दुख हरे, सुख चल के खुद आय।।
अपना कष्ट बिसारि
के, औरों की सुधि लेय।
नहीं रीति ऐसी
रही, अपनी अपनी खेय।।
अपनी अपनी सब
कहें, अपनी अपनी सोच।
इक दूजे की
नहिं सुनें, लड़ा रहे हैं चोच।।
मन की इच्छा
जानकर, चला शहर की ओर।
जाकर देखा जो
वहाँ, मचा हुआ है शोर।।
- बृजेश नीरज
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (07-03-2013) के “कम्प्यूटर आज बीमार हो गया” (चर्चा मंच-1176) पर भी होगी!
सूचनार्थ.. सादर!
आपका आभार गुरूजी!
Deletebehatareen prastuti
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति। :)
ReplyDeleteनये लेख :- समाचार : दो सौ साल पुरानी किताब और मनहूस आईना।
एक नया ब्लॉग एग्रीगेटर (संकलक) : ब्लॉगवार्ता।
सुन्दर सोच ,बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteआप भी मेरे ब्लॉग का अनुशरण करें ,ख़ुशी होगी
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सच है दूसरों के दुःख हरने से सच्चा सुख नहीं ...
ReplyDeleteलाजवाब ... सभी दोहे कमाल ...
आपका आभार!
Deletesabhi dohe sarthak arth prastut kar rahe hai...
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteमस्त !
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