Thursday, 7 March 2013

चिल्लाओ कि जिंदा हो


आखिरी बार कब चिल्लाए थे तुम
याद है तुम्हें?

जब पैदा हुए थे
तब शायद
गला फाड़कर
पूरी ताकत के साथ
चीखकर रोए थे तुम
क्योंकि तब
दुनिया के रिवाजों से अनजान
तुम्हें अपनी भूख
जायज लगी थी
तब तुम्हें लगा था
अपनी भूख मिटाना
जरूरी है जीने के लिए

जैसे जैसे बड़े होते गए
दुनिया के भय
दिल में घर करते गए
रिवाजों ने जकड़ लिया
अपने अधिकार गौढ़ लगने लगे
अपनी हैसियत छोटी
और तुमने उनके अनुसार
ढालना शुरू कर दिया खुद को

अब तुम्हें
अपनी भूख जरूरी नहीं लगती
जायज नहीं मानते
इसीलिए चिल्लाना बंद कर दिया

तुम्हें लगता है कि
भूख कुछ ज्यादा हो गयी है
और दिन प्रतिदिन
कम करते जा रहे हो
अपनी जरूरत

इसीलिए तुम्हारा पेट
अब पिचककर पीठ से सट गया
किसी पिटे हुए कनस्तर की तरह
जब निगलते हो
कोई निवाला
साफ दिखाई देता है
तुम्हारी आंतों से उतरता

तुम्हारे शरीर से झलकता है
तुम्हारा ढांचा
हिलते डुलते अस्थि पंजर की तरह
बस तुम चले जा रहे हो

तुम्हारा गला
सिकुड़कर छोटा हो गया
सिर लटककर आगे झुक गया
ठोढ़ी छूने लगी है
पसलियों को

कभी कुछ बोलते हो
आवाज गले में दबकर
घुट जाती है
घरघराहट का शोर भर
सुनाई देता है

हाशिए पर पड़े हो
कोई पूछने वाला नहीं
किस हड्डी में हो रहा है
दर्द

लेकिन अब चीखना जरूरी है
एक बार चीखो
पूरी ताकत लगाकर
कि ठोढ़ी सीधी हो जाए
लगे कि जिंदा हो अभी
मात्र कंकाल भर नहीं तुम

चिल्लाना जरूरी है
अपना अस्तित्व बचाने के लिए
मज्जा तो बची नहीं
चीखे नहीं तो
ये खाल भी न बचेगी
और हड्डियां
दफन कर दी जाएंगी
किसी नाले के किनारे
गड्ढा खोदकर।
               - बृजेश नीरज






8 comments:

  1. बहुत खूब वाह सरजी .पीड़ा को सुन्दर शब्द दिए हैं आपने वेदना को उभारा है .

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    1. आपका आभार! आपकी हौसला अफज़ाई से लिखने का साहस बढ़ा!

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  2. बिल्कुल सही दर्शाया आपने।
    अब कौन चीखने की दम रखता है?हर कोई तो सहमा हुआ है तभी समाज की यह दशा है।
    सटीक अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

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    1. आपका आभार वंदना जी! आपकी अगली रचना की प्रतीक्षा में हूं।

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  3. बिल्कुल सही दर्शाया आपने।
    अब कौन चीखने की दम रखता है?हर कोई तो सहमा हुआ है तभी समाज की यह दशा है।
    सटीक अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

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    1. आपका आभार वंदना जी!

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  4. Awaz ko cheekh mein badalne ka samay aa gaya hai ...
    prabhaavi rachna ...

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