बिस्तर पर
लेटे लेटे शून्य में निहारते हुए अचानक मेरी दृष्टि खिड़की के बाहर गली के दूसरी ओर
पड़े कनस्तर पर पड़ गयी। पिचका कनस्तर! शायद किसी डंडे की चोट उस पर पड़ी थी। बीच का
हिस्सा अंदर धंस गया था जिससे दोनों किनारों के हिस्से उभर आए थे और मुंह अधिक फैल
गया था।
अचानक हम
दोनों की नजरें मिलीं। वह पूछ बैठा, ’कैसे पड़े हो? क्या तुम भी पीटे गए हो?’
मैं अचकचा
सा गया। झुंझलाकर जवाब दिया, ’अभी जिंदा हो। मुंह खुला देखकर मैंने तो सोचा कि तुम
मर गए।’
कनस्तर
हंसा, ’खुद मरे पड़े हो और मुझे मरा समझ रहे हो। अरे, मैं पीटा गया तो मैंने मुंह
खोला, तुम तो पिटकर चुपचाप औंधे पड़े हो। मुंह खोलने की हिम्मत नहीं।’
मेरी
झुंझलाहट और बढ़ गयी। अपनी आंखें मूंदकर करवट बदलकर मैं लेट गया।
- बृजेश नीरज
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