Thursday, 4 July 2013

जीवन


गली के आखिरी छोर पर
एक जर्जर मकान
और एक बुढ़िया।
एक होड़
कौन टिकता है देर तक।
देह का सिकुड़ता आवरण
और दीवार पर गहराती दरारें
चुनौती सी समय को।

दीवारों की
उखड़ी पपड़ियों ने
कई आकृतियां उकेरीं
चांद, सूरज, हाथी, घोड़े, कार
जो तन्हाई में मुंह बिराते हैं।

सीलन, पसीना और
बजबजाती नालियां
एक अजब गंध
वातावरण में।

हवा कतराती है
इधर गुजरने से
कभी आ जाता है
कोई झोंका
आंधियां दौड़ती हैं
दूर जब
रेलगाड़ी जैसी।

यहां तक पहुंचते
छीज जाती है किरन।
चांदनी ठिठकी सी
मंडराती है मोड़ पर।
रोटी पाथते कंपकंपाते हाथों को
चांद का आभास भर है।

आंखों की सूखी परतो में
कोई सपना शेष नहीं
फिर भी बारती हैं
रौशनी के पाखण्ड के लिए
देहरी पर दिया
जो टिमटिमाता है
किसी अनजानी आशा में।

                - बृजेश नीरज

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