मन भौंरे
सा आकुल है
तुम चंपा
का फूल हुई
मैं चकोर
सा तकता हूँ
तुम चंदा
सी दूर हूई
जब पतझड़
में मेघ दिखा
तब यह
पत्ता अकुलाया
ज्यों टूटा
वो डाली से
हवा उसे ले
दूर उड़ी
तपती बंजर
धरती सा
बूँद बूँद
को मन तरसा
जितना चलकर
आता हूँ
यह मरीचिका
खूब छली
सपन सरीखा
है छलता
भान
क्षितिज का यह मेरा
पनघट पर जल
भरने जो
लाई गागर
थी फूटी
- बृजेश नीरज
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