Thursday, 11 July 2013

फूटी गागर



मन भौंरे सा आकुल है
तुम चंपा का फूल हुई
मैं चकोर सा तकता हूँ
तुम चंदा सी दूर हूई

जब पतझड़ में मेघ दिखा
तब यह पत्ता अकुलाया
ज्यों टूटा वो डाली से
हवा उसे ले दूर उड़ी

तपती बंजर धरती सा
बूँद बूँद को मन तरसा
जितना चलकर आता हूँ
यह मरीचिका खूब छली

सपन सरीखा है छलता
भान क्षितिज का यह मेरा
पनघट पर जल भरने जो
लाई गागर थी फूटी

              - बृजेश नीरज

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