Wednesday, 17 July 2013

उस जगह पर ले चलो


उस जगह पर ले चलो

जिस जगह पर छांव हो
प्रकृति रूनझुन
खग की गुनगुन
धरती हरित भाव हो
खिल उठें पुष्प
धर स्वप्न रूप
ऐसी जगह पर चलो

हवा से प्राण झंकृत
झरना अविरल
नदिया कल कल
बारिशों में अलंकृत
छाए बदरी
गाएं कजरी
झूमने गाने चलो

हम जहां हैं वहां बस
भीड़ है अजब
शोर है गजब
ईंट की दीवार बस
उखड़ती सांस
टूटती आस
उकता गया मन, चलो

थक गए हैं पांव अब
कोई ठौर
कोई जोर
क्या बचा है साथ अब
लोभ की रेह
अहं की मेह
रेत के पर्वत चढ़ो

और दुनिया अब चलो।

                   - बृजेश नीरज

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