इस समय
पूरा देश भौंचक है, किंकर्तव्यविमूढ़ है, हतप्रभ है। उत्तराखण्ड में जिस तरह की
आपदा आयी उसकी शायद किसी ने भी कल्पना नहीं की थी। जान और माल की ऐसी तबाही जिसमें
किसी से भी कुछ करते नहीं बना। जो बच सका वह सिर्फ ईश्वरीय देन के सिवा कुछ नहीं।
पूरे देश ने प्रलय की किंवदन्ती को साकार होते देखा। कई दिन लग गए यह आकलन में कि
नुकसान हुआ क्या, लोग बचे भी या नहीं!
अंधाधुंध
दोहन से उपजा प्रकृति का क्रोध कुछ इस तरह फूटा कि जो कुछ भी रास्ते में आया इसके
वेग में समा गया। लोगों ने असहाय होकर अपनी आंखों के सामने अपनों को मरते देखा।
कुछ पल पहले तक जिसके साथ हंस बोल रहे थे उसी को पानी की धारा में बह जाते देखना
कितना कष्टदायी रहा होगा। पानी के वेग में पूरा उत्तराखण्ड धाराशायी हो गया। अपनी
भव्यता पर इतराते आलीशान घर, होटल, गाड़ियां इस धारा में तिनके की तरह बह गए। कौन
मरा, कौन जिया, कौन इस कहर से बच पाया, अभी तक ठीक ठीक पता नहीं। नेता, स्टार,
अमीर, गरीब सब अपनी जान बचाने को किसी सहारे की तलाश में भटक रहे हैं। जो वहां हैं
उन्हें भी और जो यहां हैं उन्हें भी, नहीं पता कि हमारा साथी या परिवार का सदस्य
इस समय कहां है।
हालांकि
मौसम विभाग ने पहले से चेतावनी दे रखी थी लेकिन सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं
लिया। परिणाम कि जान माल का ऐसा नुकसान हुआ जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। अब भी
सरकार को नहीं पता कि अभी कितने लोग कहां कहां फंसे हैं। राहत कार्यों में जुटी
एजेंसियों में आपसी समन्वय की कमी है जिसका परिणाम घर पहुंचने को तरस रहे भूखे
प्यासे लोगों को भुगतना पड़ रहा है। यूं भी ऐसे मामलों में सरकारी सुस्ती कोई नई
बात नहीं। इसके उदाहरण पहले भी हमारे सामने आए हैं। हमारा आपदा प्रबंधन बहुत ही
लचर है। कारण सिर्फ एक है कि इस देश के कर्ता धर्ताओं को इस देश के आम जन के जान व
माल की कोई फिक्र नहीं है।
जैसे जैसे लोग
वापस आ रहे हैं त्रासदी और पीड़ा की कहानियां छनकर बाहर आ रही हैं। जो सुरक्षित
स्थानों पर हैं वे किस तरह आपदा में फंसे इन लोगों से इनकी जान और भूख की कीमत
वसूल रहे हैं वह भी हमारे समाज की संवेदनहीनता की एक मिसाल है। अपनी जान बचाने के
लिए दर दर भटके लोग जब अपनों के बीच सुरक्षित जगहों पर पहुंचे तो उनके सब्र के
बांध बरबस टूट ही गया।
इस आपदा को
देखते हुए टिहरी बांध के विरोध में चले आंदोलन के दौरान उठाए गए प्रश्न अचानक
दिमाग में गूंज गए। बारबार यह ख्याल आता रहा कि यदि कहीं टिहरी बांध को कोई नुकसान
पहुचा होता तो इस समय क्या दशा होती? खैर, बांध तो सुरक्षित है लेकिन इस आपदा ने
बरबस उस प्रश्न को वेग के साथ मुख्य धारा में डाल दिया है कि पर्यावरण की अनदेखी
करके विकास के नाम पर शहरीकरण की अंधी दौड़ कहां जाकर खत्म होगी? आखिर प्रकृति का
दोहन कब तक चलता रहेगा? जंगलों, बागों, खेतों की कीमत पर ईंटों के जंगल कब तक खड़े
होते रहेंगे? मानव जाति पर आसन्न संकट से आंखे मूंदे अंधाधुंध दोहन की इस
प्रक्रिया को तुरंत रोकना होगा। हमें अपने लालच पर लगाम कसनी ही होगी। प्रकृति के
साथ दुव्र्यवहार कितने भयंकर परिणाम लाता है यह हमने एक बार फिर देख लिया।
अगर हमने
पर्यावरण सुरक्षा और प्रदूषण के नियंत्रण पर गंभीर प्रयास शुरू नहीं किए तो
ध्रुवों पर पिघलती बर्फ के साथ मिलकर इस तरह की आपदायें मानव जाति पर कहर बनकर टूट
पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं। अभी समय है। मानव जाति को यदि अपना अस्तित्व बचाए रखना
है तो प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित करते हुए ही कदम आगे बढ़ाने होंगे वरना जल की
धारा सब कुछ निगल लेने को आतुर है। उत्तराखण्ड में जो कुछ हुआ वह सिर्फ बानगी भर
है। आगे खतरे और विकराल रूप लेकर खड़े हैं। जरूरत है बस उन आहटों को महसूस भर करने
की। जब चेतो तभी सबेरा।
- बृजेश नीरज
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