देश का हर
खेल छूटा, यह विदेशी छा गया
खेल की
दीवानगी है, रंग ऐसा चढ़ गया
छोड़ के सब
काम अपने, मन इसी में रम गया
आड़ में इस
खेल की बाजार अब सजने लगे
बोलियां अब
लग रहीं, ईमान अब बिकने लगे
लोभियों ने
यूं डसा है, दंश अब चुभने लगे
अब नियंता
खेल के, इस खेल को छलने लगे
लालचों ने
जाल ऐसा कुछ बुना इस खेल में
भावना पीछे
गयी, बस धन बचा इस खेल में
लोमड़ी,
गिरगिट सभी का घर बसा इस खेल में
बिक गए हैं
अब खिलाड़ी, क्या बचा इस खेल में
- बृजेश नीरज
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