सारा मानवीय
इतिहास त्रासदी और अत्याचार की कहानियों से भरा हुआ है। मानव के विकास के क्रम में
जब पहली बार किसी मानव के हाथ में किसी प्रकार की सत्ता, नेतृत्व या शक्ति आयी होगी,
इन अत्याचारों की कहानी तभी से शुरू हुई होगी। यह पूरी कथा शक्ति के मद में डूबते उतराते
कुछ मुठ्ठी भर लोगों द्वारा एक बड़े जनसमूह पर अपनी मनमानियां लादने की मंशा से शुरू
होती है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि ऐसी कोशिशों के विरोध में अपनी आवाज उठाने वाले
सदैव इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में सफल हुए हैं।
ऐसा ही एक नाम
है अन्ना फ्रैंक का। नीदरलैंड पर नाजी कब्जे के बाद हिटलर के नेतृत्व में नाजियों द्वारा
यहूदियों पर किए गए अत्याचार का भयावह चित्रण एम्स्टरडम की तेरह वर्षीय बच्ची अन्ना
फ्रैंक ने 14 जून, 1942 से एक डायरी में करना शुरू किया जो कि बाद में ’द डायरी आॅफ
ए यंग गर्ल’ के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई और खूब सराही गयी। ऐसे ही अपने
आसपास हो रही ज्यादतियों को शब्द देने की प्रवृत्ति ने मलाला को दुनिया से रूबरू कराया।
आज की दुनिया
ऐसी मनमानियों और अत्याचारों की कहानियों से अटी पड़ी है। जैसे जैसे मानव विकास की सीढ़ियां
चढ़ रहा है वैसे वैसे उसकी संवेदनहीनता और बढ़ती भौतिकवादी विलासी प्रवृत्ति ने नए संघर्षों
और शोषण को जन्म दिया है। पूंजीवादी बाजार के शोषण से लेकर जाति, रंग और लिंग के आधार
पर हो रहे अत्याचारों की एक लंबी फेहरिस्त है।
दुनिया की आधी
आबादी यानी स्त्रियां अब भी समाज में एक सम्मानजनक स्थान पाने के लिए संघर्षरत हैं।
भारत में ही तमाम घटनाओं के पुरजोर विरोध के बाद भी उनके शोषण के क्रम का अंत होता
नहीं दिखता। अभी लखनऊ के निकट नगराम क्षेत्र के एक गांव की मासूम बच्ची के साथ जिस
तरह की हैवानियत एक शख्स ने की और उसके उपरान्त डाक्टरों और पुलिस ने जिस संवेदनहीनता
का परिचय दिया उसकी कीमत उसे जान गंवाकर चुकानी पड़ी। यह घटना हमारे समाज के सच को सामने
लाती है। वह समाज जिसने महानगर और गांव, अमीर और गरीब, जाति, धर्म के नाम पर जाने कितने
बंटवारे कर रखे हैं और दुष्कर्म, अत्याचार जैसी घटनाओं को इन्हीं चश्मों से देखना पसंद
करता है। तभी तो ऐसी पाशविक संवेदनहीनता के बाद भी पूरे देश में इस घटना पर एक भयावह
खामोशी व्याप्त है।
दरअसल, पूरा
देश इस समय आईपीएल की रंगीनियां देखने के बाद चैम्पियन्स ट्राॅफी की धूम में मस्त है।
जो खाली समय लोगों को मिलता है उसमें मनोरंजन के लिए इस समय भाजपा की नौटंकी तो चल
ही रही है। अडवाणी नगाड़ा पीटने के बाद अब थकान दूर कर रहे हैं। अब कमान अपनी असफलताओं
से घबराए नीतीश कुमार के पास है जो फिर से बिहार पर काबिज होने के नए रास्ते खोज रहे
हैं। भाजपा के सहारे सत्ता पर काबिज नीतीश अब नए फार्मूलों और नारों की खोज में भाजपा
और खासतौर पर मोदी को निशाने पर लिए हुए हैं। यदि गौर से देखें तो विचार के स्तर पर
दिवालिया हो चुके सभी राजनैतिक दल छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा भर पहने हैं। इन सभी
के लिए मोदी एक आसान टारगेट भर हैं जिन पर निशाना साधकर वो 2014 की प्रतियोगिता जीत
लेने का दम भर रहे हैं। ऐसा हो भी जाए तो आश्चर्य नहीं क्योंकि इस देश की जनता अपने
अस्तित्व के संकट के चरम से जूझते रहने के बावजूद भी चेत गयी हो, ऐसा लगता नहीं।
सरकार नित नए
बहाने खोज रही है जिससे पूंजीपतियों को खुश कर अपने घर की तिजोरी भरी जा सके। एक नया
अस्त्र खोजा गया है जिस तरफ अभी तक जनता का ध्यान नहीं गया या जिसे अभी तक कोई खास
महत्व नहीं दिया गया। घर घर तक पहुंचे केबल के द्वारा तमाम मनोरंजन और समाचारों का
आनंद उठा रही जनता की जेब जल्द ही कटने वाली है। सेट टाॅप बाॅक्स का बहाना तो शांति
के साथ काम कर गया। अब आगे की कवायद शुरू हो गयी है। केबल ग्राहकों को एक फाॅर्म भरकर
देना होगा जिसमें अपनी व्यक्तिगत जानकारी देने के अलावा यह भी बताना होगा कि वे कौन
कौन से चैनल देखते हैं और उस हिसाब से ही शुल्क देना होगा। तमाम लघु उद्योगों को व्यवसायिक
घरानों के महलों के नीचे दफन कर चुकी सरकार के निशाने पर अब जन जन तक पहुंच बना चुका
यह मनोरंजन का साधन है। छतरी बेचने वाली कंपनियों की दुकान इन केबल वालों के कारण मंदी
चल रही थी। अब सरकार इन कंपनियों का रास्ता आसान करने के लिए सस्ते मनोरंजन के इस साधन
पर लगाम कसने और जनता को जेब ढीली करने के लिए मजबूर करने पर आमादा है। गैस की तरह
अब चैनल भी अधिक दामों पर उपलब्ध हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
इस देश की सबसे
बड़ी त्रासदी ही यही है कि यहां के लोकतंत्र में आम जनता का कोई स्थान नहीं है। सत्ताधारी
नेता जनता को मात्र प्रजा ही समझते हैं और जनता भी उन्हें राजा ही मानती है। तभी ’कोउ
नृप होय हमें का हानि’ कहकर अपनी तंगहाल जिंदगी की बढ़ती दिक्कतों को सहजता से स्वीकारते
आम जन तिल तिल घिसटने को मजबूर हैं और इस त्रासदी को डायरी में लिखने वाली न कोई फ्रैंक
यहां है, न कोई मलाला।
-
बृजेश नीरज
No comments:
Post a Comment