पिछले वर्ष
गोवाहाटी में जब सरेराह एक युवती को अपहृत करने और उसे बेइज्जत करने की कोशिश हुई
थी तो देश भर में गुस्से की लहर दौड़ गयी थी। सरकारी तंत्र को लीपापोती वाली कवायद
करनी पड़ी। साल खत्म होते होते दिल्ली में हैवानियत का नंगा खेल एक चलती बस में रचा
गया। जिसने स्त्री सुरक्षा के प्रश्न को एक बार फिर मुख्यधारा में ला दिया। काफी
लंबा संघर्ष चला। जिसकी परिणति के रूप में एक चलताऊ कानून बनाने की मशक्कत सरकार
को करनी पड़ी। अभी यह आग ठंडी भी न हुई थी कि एक बार फिर दिल्ली में एक मासूम
पाशविक वासना का शिकार हो गयी। खूब शोर शराबा हुआ। नतीजा, वही ढाक के तीन पात।
ऐसा नहीं
है कि इस अवधि में यही तीन घटनायें इस देश में हुईं। स्त्री हर मिनट, हर जगह पीड़ित
की जा रही है। लेकिन ये वो घटनायें थीं जो मीडिया से लेकर तथाकथित बुद्धिजीवियों
के दिमाग तक को झकझोर गईं। जिनको लेकर लोग सड़कों पर उतरे, प्रदर्शन हुए, नारेबाजी
हुई, मोमबत्तियां जलाई गईं। बाकी घटनायें सिर्फ अखबार के पन्नों पर एक छोटी जगह
पाकर गुजर गईं। उन्होंने स्त्री सुरक्षा या यूं कहें कि नारीवादी आंदोलन में कोई
महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई। यदि उन घटनाओं की कोई भूमिका होती तो यह आंदोलन
लगातार चल रहा होता और तब तक चलता जब तक कि कोई ठोस परिणाम सामने न आ जाता।
लखनऊ के
निकट नगराम के एक गांव की एक मासूम बच्ची के साथ इन पिछले दो तीन दिनों में जो हुआ
वह संवेदनहीन समाज और तंत्र के सच को उजागर करने के लिए काफी है लेकिन शायद समाज
के ईलीट वर्ग के लिए महत्वपूर्ण नहीं। दुराचार की पाशविकता और उसके बाद सरकारी
तंत्र द्वारा बरती गयी लापरवाही का दुष्परिणाम उस बच्ची को अपनी जान गंवाकर चुकाना
पड़ा। हालांकि पुलिस ने उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया लेकिन पुलिस से लेकर
डाक्टरों तक ने जिस संवेदनहीनता का परिचय दिया उसके चलते वह बच्ची इलाज के लिए एक
अस्पताल से दूसरे अस्पताल रेफर की जाती रही। जहां दिल्ली बस कांड की पीड़िता को
इलाज के लिए सिंगापुर भेजा गया वहीं इस बच्ची को सरकारी अस्पतालों में भी सही इलाज
मुहैया नहीं हुआ।
यह घटना
उतनी ही वीभत्स है जितनी कि बाकी की घटनायें बल्कि यह उनसे भी अधिक वीभत्स है
क्योंकि यह हमारे समाज की संवेदनहीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण है लेकिन यह घटना कोई
आंदोलन नहीं खड़ा कर सकी।
सरकार,
कानून, डाक्टर सब अपना पल्ला झाड़कर अलग खड़े हैं। बुद्धिजीवी और नारी स्वतंत्रता के
ठेकेदार अपने आलीशान बंगले में आराम फरमा रहे हैं। दूरदराज गांव के एक गरीब परिवार
की छोटी बच्ची समाज की वहशी वासना का शिकार हो गलीच संवेदनहीनता के चलते अपनी
जिंदगी की जंग हार गयी।
आखिर ऐसा
क्यों होता है कि महानगरों की चकाचौध में होने वाले दुष्कर्म पर तो हम नाराज हो
जाते हैं लेकिन किसी दूरदराज गांव के गरीब के साथ हुआ जघन्य अपराध राष्ट्रव्यापी
नाराजगी का कारण कभी नहीं बनता। क्या इस छोटी बच्ची को न्याय की आवश्यकता नहीं थी?
अफसोस कि
इस घटना पर किसी भी दुकान से एक भी मोमबत्ती नहीं बिकी।
इस घटना पर
गजब की खामोशी है। अब देखना है कि यह खामोशी कब टूटेगी?
-
बृजेश नीरज
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