याद जलती सी
शमा बन देह में घुलती रही
सह रहे थे तीर
कितने वक्त से लड़ते हुए
भावना तो संग
मेरे मौन बस तकती रही
ये सुबह भी
रात का आभास देती है मुझे
इन उजालों में
अंधेरे की लहर दिखती रही
दर-ब-दर हो
हम तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए
प्रेम की इक
ओढ़ चादर वासना फिरती रही
आंख ने तो अब
सपन ही देखना चाहा नहीं
नींद ये फिर
भी मुझे बदनाम ही करती रही
खोजता मैं फिर
रहा हूं गांव की वो मस्तियाँ
भीड़ अब इस
शहर की हर पल मुझे छलती रही
छेड़ दी ज्यों
ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा
देर तक इन डालियों
से ओस सी झरती रही
- बृजेश
नीरज
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