Friday, 14 June 2013

चुभती रही



चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही
याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही

सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते हुए
भावना तो संग मेरे मौन बस तकती रही

ये सुबह भी रात का आभास देती है मुझे
इन उजालों में अंधेरे की लहर दिखती रही

दर-ब-दर हो हम तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए
प्रेम की इक ओढ़ चादर वासना फिरती रही

आंख ने तो अब सपन ही देखना चाहा नहीं
नींद ये फिर भी मुझे बदनाम ही करती रही

खोजता मैं फिर रहा हूं गांव की वो मस्तियाँ
भीड़ अब इस शहर की हर पल मुझे छलती रही

छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा
देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही
                      - बृजेश नीरज


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