क्रिकेट अब
खेल नहीं रहा बल्कि अकूत धन और शोहरत कमाने का जरिया भर रह गया है। क्रिकेट की
लोकप्रियता ने जिस तरह की चकाचौध
को जन्म दिया है उसका अंजाम शायद कुछ बेहतर तो होने की उम्मीद किसी को नहीं थी।
हां, इसका स्वरूप और गहनता देखकर इस खेल को चाहने वाले आश्चर्यचकित और दुखी जरूर
हैं। सभी ने यह आशा की थी कि हेंसी क्रोनिए और अजहरूद्दीन के प्रकरण से सबक लेते
हुए अब कोई खिलाड़ी और खासतौर से भारतीय खिलाड़ी इस तरह की हरकतों में शिरकत नहीं
करेगा लेकिन किसी का सोचा कब पूरा हुआ है और पैसे का सुरूर कब किसका सिर फिरा दे
कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसा ही इस बार आईपीएल में फिर एक बार हुआ।
आईपीएल की
रंगीनियों के पीछे की कालिख एक बार फिर दुनिया के सामने आ गयी। कपिल देव की अगुवाई
में एक समूह द्वारा शुरू किए जा रहे क्रिकेट के व्यवसायिक आयोजन की प्रतिद्वंदिता
में उतरे बीसीसीआई ने आईपीएल के बहाने जिस अंधी दौड़ का आयोजन किया है उसके हमाम से
कितने नंगे चेहरे सामने आने हैं ये देखने वाली बात होगी। चियर्स गल्र्स की वेशभूषा
से शुरू हुआ आईपीएल का विवादों से नाता इसकी श्रीगणेश करने वाले ललित मोदी के मुंह
पर कालिख पुतने के साथ चरम पर पहुंचा। अब जो कुछ हो रहा है वह इस आयोजन व विवाद के
स्याह पटाक्षेप की पटकथा भर है।
आईपीएल-6
जहां क्रिस गेल की धुंआधार बल्लेबाजी के लिए याद किया जाएगा वहीं तमाम चेहरों पर
पुती कालिख के लिए भी याद रहेगा। श्रीसंत, अंकित चैहान व अजीत चंदेला की गिरफ्तारी
से शुरू हुआ यह 20-20 ड्रामा अपने स्लाॅग ओवर की तरफ है। बिंदू और मेयप्पन की
गिरफ्तारी इसकी गहरी जड़ों की तरफ इशारा करती हैं। राजीव शुक्ला, शिर्के और जगताले
का इस्तीफा इस मैच के रोमांच को बढ़ाने का काम कर रहे हैं।
श्रीनिवासन
द्वारा उंगलियां उठने के बावजूद भी कुर्सी से चिपके रहने और अंत में सत्ता डालमिया
को हस्तांतरित करने के पीछे इस बाजार पर अपने कब्जे को न छोड़ पाने का मोह भर है।
मजेदार बात यह कि इतने हो हल्ले के बाद जिन डालमिया को कर्ताधर्ता बनाया गया वे
खुद भ्रष्टाचार के मुकदमे झेल रहे हैं और कुछ समय पहले ही बीसीसीआई से धकियाए गए
हैं। इसका साफ आशय सिर्फ इतना है कि अपने विरोधी शरद पवार गुट को श्रीनिवासन हावी
नहीं होने देना चाहते थे। वरना वे भी जानते हैं कि तब उनकी छीछालेदर होना तय था।
वैसे इस रोग से केवल श्रीनिवासन ही नहीं ग्रसित हैं बल्कि बहुत कद्दावर नेता खेल
एसोसिएशनों की तरफ लोभ भरी नजरों से देखते रहते हैं। शरद पवार से लेकर अरूण जेटली
तक एक लंबी फेहरिस्त है ऐसे नेताओं की जिनका खेलों से कभी नाता नहीं रहा लेकिन
खेलों के नियंता बने बैठे हैं। इसके पीछे कारण उनका खेल प्रेम नहीं बल्कि इनसे
जुड़ी अकूत संपत्ति है जिसने इनको लार टपकाने पर मजबूर कर दिया है और यही त्रासदी
भी है। मैच फिक्सिंग और सेक्स रैकेट के कलंक झेल रही खेल प्रतियोगिताएं इन
राजनैतिक दखलंदाजी और बाजारू प्रवृत्ति के नीचे दम तोड़ रही हैं। इस बाजार और पैसे
की अधाधुंध दौड़ में खेल कितने दिन और कितना जिंदा रहता है यही देखना है।
- बृजेश नीरज
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