वो कौन सा
फर्क है
जो मिला देता
है
हकीकत को इश्तिहार से
बस एक मरीचिका सा
पूरा जीवन पार
हो जाता है
और तुम
कोई शिकायत करने लायक
भी नहीं बचते
सिर्फ ओढ़कर लेट
जाते हो
अपने ही असफलताओं को
मुंह ढंक लेने
से
सूरज पच्छम से
नहीं उगेगा
इस असलियत को पहचानना होगा
जो एक तुमसे
उम्र में दुगना
बूढ़ा देश चला
लेता है
और तुम परिवार नहीं चला पाते
तुम्हारी पत्नी की
कमर दर्द से
सीधी नहीं हो
पाती
और वो अभिनेत्री अभी भी
पे्रमिका सी छलकती
है
तुम्हारा बच्चा बूढ़ा
हो गया
पर ठीक से
बोल नहीं पाता
और उनका बच्चा
पैदा होते ही
टी वी पर
इंटरव्यू देता है
लो अब तुमने
मुंह लटका लिया
किसी भी बात
पर उदास हो
जाते हो
घास बन जाते
हो
यह कोई डार्विन का सिद्धान्त नहीं
जो पेड़ तना
खड़ा है
हालांकि पत्ते झड़
गए
ईश्वर की त्रासदी नहीं
जो नदी अब
इस तरफ बहकर
नहीं आती
बारिश नहीं हुई
बादलों की साजिश
नहीं
आंसू कम पड़
गए हैं
समंदर में
तुम कभी समुद्र तक गए ही
नहीं
अंगौछा लपेटे
इन पंगडंडियों में ही
गोल घूम रहे
हो
वो एक रास्ता
जिस पर खर
पतवार उग आए
हैं
वो जाता है
दिल्ली तक
वहीं एक गोल
गुम्बद के नीचे
कैद है तुम्हारी किस्मत
एक पिंजड़े में
जा सकोगे वहां
तक
जाना तो
चीखना एक बार
कुतुबमीनार पर चढ़कर
समुद्र की तरह
मुंह करके
पुकारना उसे
चेहरे की झुर्रियां कम होंगी
बहुत से कबूतर
उड़ पड़ेंगे
यहीं जोर से
पुकारते हो
कभी
आसपास के पेड़ों
से बहुत सी
चिड़ियां उड़ पड़ती
हैं फुर्र से
कुछ बूंदें गिरती हैं
आसमान से
एक सोंधी महक
उठती है
धरती से
ऐसे ही उठेगी
खूब सारी महक
विदेशी इत्र से
अधिक सोंधी
लेकिन जाना होगा
उस तरफ
जिधर से आती
है हवा
उठते हैं बादल
उस समंदर तक।
- बृजेश नीरज
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