Thursday, 9 May 2013

उस समंदर तक


वो कौन सा फर्क है
जो मिला देता है
हकीकत को इश्तिहार से

बस एक मरीचिका सा
पूरा जीवन पार हो जाता है
और तुम
कोई शिकायत करने लायक भी नहीं बचते
सिर्फ ओढ़कर लेट जाते हो
अपने ही असफलताओं को

मुंह ढंक लेने से
सूरज पच्छम से नहीं उगेगा

इस असलियत को पहचानना होगा
जो एक तुमसे उम्र में दुगना
बूढ़ा देश चला लेता है
और तुम परिवार नहीं चला पाते
तुम्हारी पत्नी की कमर दर्द से
सीधी नहीं हो पाती
और वो अभिनेत्री अभी भी
पे्रमिका सी छलकती है
तुम्हारा बच्चा बूढ़ा हो गया
पर ठीक से बोल नहीं पाता
और उनका बच्चा पैदा होते ही
टी वी पर इंटरव्यू देता है

लो अब तुमने मुंह लटका लिया
किसी भी बात पर उदास हो जाते हो
घास बन जाते हो

यह कोई डार्विन का सिद्धान्त नहीं
जो पेड़ तना खड़ा है
हालांकि पत्ते झड़ गए

ईश्वर की त्रासदी नहीं
जो नदी अब इस तरफ बहकर नहीं आती

बारिश नहीं हुई
बादलों की साजिश नहीं
आंसू कम पड़ गए हैं
समंदर में

तुम कभी समुद्र तक गए ही नहीं
अंगौछा लपेटे
इन पंगडंडियों में ही गोल घूम रहे हो

वो एक रास्ता
जिस पर खर पतवार उग आए हैं
वो जाता है
दिल्ली तक
वहीं एक गोल गुम्बद के नीचे
कैद है तुम्हारी किस्मत
एक पिंजड़े में

जा सकोगे वहां तक

जाना तो
चीखना एक बार
कुतुबमीनार पर चढ़कर
समुद्र की तरह मुंह करके
पुकारना उसे
चेहरे की झुर्रियां कम होंगी
बहुत से कबूतर उड़ पड़ेंगे

यहीं जोर से पुकारते हो
कभी
आसपास के पेड़ों से बहुत सी
चिड़ियां उड़ पड़ती हैं फुर्र से
कुछ बूंदें गिरती हैं आसमान से
एक सोंधी महक उठती है
धरती से

ऐसे ही उठेगी
खूब सारी महक
विदेशी इत्र से अधिक सोंधी
लेकिन जाना होगा उस तरफ
जिधर से आती है हवा
उठते हैं बादल
उस समंदर तक।
             - बृजेश नीरज


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