Monday 13 May 2013

गीत/ इक सहर तो दो


फटे हुए हैं
पैरहन बदल तो दो
इन अंधेरों को
इक सहर तो दो

अंधे बहरों के
निजाम में बंदिश
इस माहौल में
एक बहर तो दो

आंख का पानी मरा
हम हैं जिंदा
इन हवाओं को
न यूं जहर तो दो

किस कदर परेशान
भटकते फिरते
जरा खुद को भी
एक पहर तो दो

दरिया बहता था
वो भी सूख गया
इन सहराओं को
इक शज़र तो दो
          - बृजेश नीरज

No comments:

Post a Comment

कृपया ध्यान दें

इस ब्लाग पर प्रकाशित किसी भी रचना का रचनाकार/ ब्लागर की अनुमति के बिना पुनः प्रकाशन, नकल करना अथवा किसी भी अन्य प्रकार का दुरूपयोग प्रतिबंधित है।

ब्लागर