Tuesday 7 May 2013

जीता जागता इंसान


उकता गया हूं
वही चेहरे देख देख
सुबह शाम
वही सपाट चेहरे
भावहीन

किसी रोबोट की तरह
बस चलायमान

कभी दर्द नहीं छलकता
इनकी आंखों में
कभी कभी
मुंह थोड़ा फैल जाता है
उबासी लेते हुए
कभी कभी लगता है
जैसे मुस्करा रहे हैं

ये बोलते हैं
सोचते हैं

बस चलायमान हैं
किसी साफ्टवेयर से संचालित

सोचता हूं
कब तक देखना होगा
इन मशीनी चेहरों को

क्या कभी
कोई सुबह
कोई शाम
कोई किरन
कोई हवा
भर पायेगी इनमें भी
जीवन के अंश

कि अचानक
ठहाके मार के हंस पड़ें
ये
चीख पड़ें
जब चोट लगे इन्हें

कभी तो हो ऐसा
काश
आदमी फिर से बन जाए
एक जीता जागता इंसान!
                  - बृजेश नीरज

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