Monday 6 May 2013

सांस लेने भर

कहां मिलता है
ब्रेक
बस मशीनी पुरजों की तरह
चलते रहना
दिन रात।
इसी भागमभाग में
छूट गयीं संवेदनायें
भावनायें
छूट गया बचपन
साथी
कहीं पीछे।
रह गया बस अहसास
कि जिंदा हैं हम
सांस लेने भर।
         - बृजेश नीरज

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