जिस्म पर उभरी
लकीरें
गवाह हैं
उन रास्तों
की
जिनसे होकर
गुजरा हूं
और बार बार
असफल
फिर फिर लौटा
हूं
तुम्हारे पास
याचना लिए
प्रेम के छांव
की।
अपने दंभ में
आगे निकल जाता
हूं
तुम्हें पीछे
छोड़
लेकिन
वक्त से टकराकर
लौटना पड़ता
है
तुम्हारे पास
उंगली थामने।
यूं ही नहीं
गुजरा वक्त
यूं ही नहीं
उभरी लकीरें
चेहरे पर
शरीर पर
ये गवाह हैं
उन पलों की
जब तुमने थामा
है
मेरा हाथ
जो कांपने लगे
थे पांव।
तुम हमेशा ही
एक उम्मीद थी
मैं ही आंख
मूंदे रहा
अपने सपनों
से
जो हमेशा तैरते
रहे
तुम्हारी आंखों
में।
- बृजेश नीरज
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