मलिन चेहरा
धूल धूसरित,
समय की धूप
में
स्याह पड़ता गौर
वर्ण,
क्रूर चक्र में
दलित बचपन
अज्ञात गर्भ का
जना
अनजान वंश का
अंश
चैराहे की लाल
बत्ती पर
गाड़ी पोंछता
अपनी फटी कमीज
से
पैसे के लिए
हाथ फैलाते ही
बिखर गया था
बाल पिण्ड
सूखे होठों पर
किसी उम्मीद की फुसफुसाहट
लाल बत्ती हरी
हो गयी
गाड़ी चल पड़ी
गन्तव्य को
बचपन पीछे छूट
गया
एक कोने में
खड़ा
कमीज को अपने
बदन पर डालता
आंखों में
भूख की छटपटाहट
व्यवस्था के पहियों तले
दमित बचपन
बेचैन था वयस्क
हो जाने को।
- बृजेश नीरज
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