हंसने खिलखिलाने वाली
तुम,
आज खामोश हो।
कोई वेदना है
पर कहती नहीं।
अंधेरी रात में
आसमान का रोना
दिखता नहीं;
सुबह
बिखरी होती हैं
बूंदें घास पर।
अक्सर छुपा लेती
हो
अपना दर्द;
आंच में
मोम की तरह
पिघलती रहती हो
चुपचाप।
कभी कभी
नाराज होती हो
बादलों की कड़क
सी,
पर
गरजने वाले बरसते
नहीं।
अच्छा होता बरस
जाते
मूसलाधार बारिश बनकर।
- बृजेश नीरज
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