जीवन की पहचान
नहीं है।।
नदिया सूखी रेत
बची है।
दिल में सबके
प्यास बढ़ी है।।
अब तो प्यास
बुझाऊं कैसे।
जल बिन मछली
तड़पत जैसे।।
गगरी सूनी पनघट
सूना।
धरती सूनी अम्बर
सूना।।
गरमी अब बेहाल
किए है।
जल का भी
व्यापार किए है।।
नदिया में जलधार
नहीं है।
वह बोतल में
कैद सजी है।।
जन जन से
यह शोर मचा
है।
बापू कैसा रास
रचा है।।
अपनी पीर बताएं
किससे।
कौन सुनेगा अब ये
मुझसे।।
- बृजेश नीरज
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