Thursday, 23 May 2013

दोहे/ नीर


कबिरा निकला राह पर, लेकर गगरी हाथ।
पानी भरने के लिए, कौन चलेगा साथ।।

पनघट की हलचल गयी, कहीं न पानी देख।
नदिया की कल कल गयी, बची न पानी रेख।।

धरती में भी ताप है, नभ से बरसे आग।
जन प्यासे हैं बूंद को, बापू खेलें फाग।।

दोहन इतना कर लिया, सूखा धरती चीर।
हरियाली सारी गयी, नहीं बचा अब नीर।।

ऋषि मुनि सारे कह गए, पानी था अनमोल।
लेकिन अब व्यापार है, बिकता ये भी मोल।।

अजब गजब फैशन हुआ, ताल तलैया छोड़।
देखो बोतल के लिए, मची हुई है होड़।।
                       - बृजेश नीरज

No comments:

Post a Comment

कृपया ध्यान दें

इस ब्लाग पर प्रकाशित किसी भी रचना का रचनाकार/ ब्लागर की अनुमति के बिना पुनः प्रकाशन, नकल करना अथवा किसी भी अन्य प्रकार का दुरूपयोग प्रतिबंधित है।

ब्लागर