Tuesday, 21 May 2013

नवगीत/ रात घनेरी


चांद सितारे
चुप से हैं।
रात
घनेरी छाई है।।

तेज घनी
दुपहरिया में
अब अंगार बरसते हैं।
तपती
बंजर धरती पर
पांव धरें
तो जलते हैं।
पेड़ की
टूटी शाख पर
इक कोंपल
मुरझाई है।।

चिटक गयीं
दीवारे भी
छत से
बूंद टपकती है।
जमीं
सहेजी थी मैंने
मुझसे
दूर खिसकती है।
नयनों की
परतें सूखी
दिल में
सीलन छाई है।।

देखो
अब आशाओं के
पंख झड़े
तन सूख गए।
कितने कितने
सपनों के
श्वास से
संग छूट गए।
बस
टूटा बिखरा सा ये
जीवन
इक भरपाई है।।
          - बृजेश नीरज 

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