Thursday, 2 May 2013

गज़ल/ देह जलती है


शाम सी जिंदगी गुजरती है
रात कितनी करीब लगती है

याद नित पैरहन बदलती है
ये शमा बूंद बन पिघलती है

आंत महसूस अब नहीं करती
भूख पर आंख से झलकती है

हम जहां पर खड़े अभी तक थे
वो जमीं देखिए दरकती है

होम करने करीब आए तो
इस लपट से ये देह जलती है
                - बृजेश नीरज



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