हर वर्ष 1 मई ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाया
जाता है। देश और समाज के विकास में मजदूरों के योगदान पर चर्चा होती है, उन्हें लाल,
पीला, नीला हर रंग का सलाम दिया जाता है, चाय नाश्ता होता है और बस फिर अगले वर्ष के
सम्मेलन का इंतजार। इस पूरी कवायद से अभी तक मजदूरों को क्या मिला? कुछ नहीं।
फ्रांस की क्रांति से लेकर माक् र्सवाद और लेनिन
व माओ के विचारों से गुजरते मजदूर आंदालन का हश्र पूंजीवाद के दुनिया भर में बढ़ते प्रभाव
में नारों तक सिमट कर रह गया। तमाम संघर्षों और आंदोलनों के बावजूद दुनिया भर में मजदूरों
की स्थिति आज भी दयनीय के स्तर से ऊपर नहीं उठ पायी है। जीवन की मूलभूत जरूरतों के
लिए तरसते इस वर्ग के लिए विकास के मायने क्या होंगे इसे समझना शायद बहुत मुश्किल नहीं
होगा।
पूरी दुनिया में जिस तरह पूंजी का बोलबाला बढ़ा
उसने मजदूरों की हक की लड़ाई को जटिलता की ओर ही धकेला। शायद पूंजीवाद का मूल मंत्र
भी यही है। पूंजी का एकाधिपत्य जहां एक वर्ग को अधिक से अधिक साधन संपन्न करता जाता
है वहीं इस पूंजी को एकत्र करने में सहायक वर्ग को इससे दूर धकेलता जाता है। श्रमिक
वर्ग को सुविधायें उपलब्ध कराना पूंजी के केंद्रीयकरण में बाधक होता है। केंद्रीयकरण
की इस प्रक्रिया ने दुनिया भर में राजशाही के खात्मे के बावजूद एक नयी राजसत्ता की
स्थापना की है जो शक्ति और सत्ता पर आधारित न होकर पूंजी आधारित है और यह पूंजीशाही
आज की तारीख में शक्ति और राजसत्ता दोनों को नियंत्रित करती दिखती है। इस पूंजीवाद
ने एक ऐसे लोभ का निर्माण किया है जो मजदूर के हक को नजरअंदाज कर उसकी आवाज का क्रूरतापूर्वक
दमन से भी पीछे नहीं हटता। इस मामले में यह राजशाही की प्रकृति से और भी विकृत स्थिति
है। पूंजीवाद में जो परोक्ष या अपरोक्ष निर्ममता है वह आज समाज में व्याप्त विसंगतियों
के रूप में स्पष्ट परिलक्षित होती है।
इस पूंजीवाद ने एक ऐसा बाजार खड़ा किया जो अंग्रेजियत
और भव्यता के आडंबर पर टिका है। इसने दिखावे की जो चकाचैंध पैदा की है उसके आगे गैर
पूंजीवादी किसी प्रयास का टिक पाना असंभव ही है। बाजारों की छद्म जगमगाहट और माॅल संस्कृति
ने जिस तरह जगह जगह लगने वाले देसी बाजारों की रौनक को जिस तरह निगला है उससे घरेलू
उद्योगों का भविष्य चैपट कर देसी हुनर को कुछ पूंजीपतियों और विदेशी कंपनियों के हाथ
का खिलौना भर बना दिया है। हथकरघा उद्योग की स्थिति इसका प्रमाण है।
कुल मिलाकर जमींदारी प्रथा में मजदूरों की जो
स्थिति थी उसकी तुलना में आज की पूंजीवादी व्यवस्था में स्थिति बहुत बेहतर नहीं हैं।
फर्क सिर्फ इतना हुआ कि एक संगठनात्मक ढांचा भर खड़ा है जिसके सहारे कभी कभी अतियों
का विरोध करने की कोशिश हो जाया करती है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति तो
और भी भयावह हो चुकी है। न तो सरकारें उनके भले का कुछ करने का प्रयास करती हैं और
न ही पूंजीवादी बाजार उनके लिए संभलने को कोई जमीन छोड़ता है। बुनकरों की स्थिति इसका
स्पष्ट उदाहरण है।
रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझते इस श्रमिक वर्ग
के लिए इस मजदूर दिवस की कितनी उपयोगिता है इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है और यह भी
स्पष्ट है कि पूंजीवादी बाजार और सत्ता इस मजदूर दिवस को कितना महत्व देते हैं। काश!
किसी मजदूर दिवस पर पूंजी के शिकंजे में कसमसाती व्यवस्था आजाद हो पाती और श्रमिक को
भी उसकी हिस्सेदारी मिल पाती। काश!
- बृजेश नीरज
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