Tuesday 30 April 2013

गज़ल/ समां

(चित्र गूगल से साभार)

ये वज़ूद की लड़ाई किसी दिन बदल न जाए
मेरे हाथ में हो खंज़र ये समां यूं ढल न जाए

जो शहर की हर गली में ये पसर गयी खामोशी
तो सहर भी डर के अपना कहीं रुख बदल न जाए 

यहां बह रही थी गंगा वो भी सूखने लगी है
कहीं रेत की तपिश में मेरे पांव जल न जाए

ये नज़र का ही तो जादू जो यूं चांद मुस्कुराए
‘न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए’

मेरा वक्त हर कदम पर दे रहा है ऐसे धोखा
मेरी जुस्तजू ही मुझको किसी दिन निगल न जाए
                          - बृजेश नीरज

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