(चित्र गूगल से साभार)
ये वज़ूद की
लड़ाई किसी दिन बदल न जाए
मेरे हाथ में
हो खंज़र ये समां यूं ढल न जाए
जो शहर की हर
गली में ये पसर गयी खामोशी
तो सहर भी डर
के अपना कहीं रुख बदल न जाए
यहां बह रही
थी गंगा वो भी सूखने लगी है
कहीं रेत की
तपिश में मेरे पांव जल न जाए
ये नज़र का ही
तो जादू जो यूं चांद मुस्कुराए
‘न झुकाओ तुम
निगाहें कहीं रात ढल न जाए’
मेरा वक्त हर
कदम पर दे रहा है ऐसे धोखा
मेरी जुस्तजू
ही मुझको किसी दिन निगल न जाए
- बृजेश नीरज
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