Friday 5 April 2013

साहित्यकार


एक दिन
यूं ही बैठे बैठे
कोई कविता पढ़ते पढ़ते
जी मचला
दिल हुमसा
उठाई कलम
लिख डाली मैंने भी
एक कविता

लोगों को पढ़ाई
अपनी नई कविता
बहुत तारीफ हुई
वाह वाह मिली

तब से
मैं साहित्यकार हो गया
बंद कर दीं
औरों की रचनायें पढ़नी

अब किसी और की
रचना की तारीफ नहीं करता
सब लगते हैं मुझे
गौढ़
मेरे कद से छोटे

मैंने समझा नहीं
यह रहस्य
साहित्य के महासागर में
लहरों की गिनती नहीं होती
बूंद पड़ जाए अलग
उसकी कीमत नहीं होती।
    - बृजेश नीरज

17 comments:

  1. आज की ब्लॉग बुलेटिन क्यों 'ठीक है' न !? - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बहुत आभार! अपनी कृपा मुझ पर ऐसे ही बनाए रखें।

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  2. वाह कितना सुन्दर लिखा है आपने, बहुत सुन्दर जवाब नहीं इस रचना का........ बहुत खूबसूरत.......!!!

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  3. सटीक प्रस्तुति।
    थोड़ी सी खोखली लोकप्रियता पा यही लगने लगता है कि साहित्य हमसे से ही चला है।
    सादर

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    1. ऐसा समझने वालों की कमी नहीं है।

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  4. ज़रूरत से ज़्यादा तारीफ़ पाकर यही हाल हो जाता है शुरू से अपने को महान् समझ लेनेवालों का .

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    1. आपका आभार! आपने सत्य कहा। ऐसे में व्यक्ति अपने अहम के महासागर में अंततः डूब ही जाता है।

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (6-4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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    1. आपका बहुत आभार आदरणीया!

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  6. अहं को अपनी जगह पर लाकर पटकने वाली कविता। विश्व साहित्य में बडे-बडे साहित्यकारों को कोई पुछता नहीं एक दो रचनाएं लिखने वालों की 'पुछ'कहां; हां अहं और घमंड की जरूर लंबी 'पूंछ' होती है। जहां भीं भीम की ताकत का गर्व हरन हुआ वहां ऐसों की गिनती तो न के बराबर होती है। जरूरी है लिखे भी और दूसरों का लिखा सराहे भी। सहज और सुंदर कविता।
    drvtshinde.blogspot.com

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  7. वाह बहुत सुंदर रचना

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में सम्मलित "समर्थक"हों
    आभार आपका

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  8. अधिक तारीफ पचती नहीं ... पर ऐसे में साहित्य भी जल्दी ही खत्म हो जाता है ...

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