एक दिन
यूं ही बैठे
बैठे
कोई कविता पढ़ते
पढ़ते
जी मचला
दिल हुमसा
उठाई कलम
लिख डाली मैंने
भी
एक कविता
लोगों को पढ़ाई
अपनी नई कविता
बहुत तारीफ
हुई
वाह वाह मिली
तब से
मैं साहित्यकार
हो गया
बंद कर दीं
औरों की रचनायें
पढ़नी
अब किसी और
की
रचना की तारीफ
नहीं करता
सब लगते हैं
मुझे
गौढ़
मेरे कद से
छोटे
मैंने समझा
नहीं
यह रहस्य
साहित्य के
महासागर में
लहरों की गिनती
नहीं होती
बूंद पड़ जाए
अलग
उसकी कीमत नहीं
होती।
- बृजेश नीरज
आज की ब्लॉग बुलेटिन क्यों 'ठीक है' न !? - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत आभार! अपनी कृपा मुझ पर ऐसे ही बनाए रखें।
Deleteवाह कितना सुन्दर लिखा है आपने, बहुत सुन्दर जवाब नहीं इस रचना का........ बहुत खूबसूरत.......!!!
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति।
ReplyDeleteथोड़ी सी खोखली लोकप्रियता पा यही लगने लगता है कि साहित्य हमसे से ही चला है।
सादर
ऐसा समझने वालों की कमी नहीं है।
Deleteज़रूरत से ज़्यादा तारीफ़ पाकर यही हाल हो जाता है शुरू से अपने को महान् समझ लेनेवालों का .
ReplyDeleteआपका आभार! आपने सत्य कहा। ऐसे में व्यक्ति अपने अहम के महासागर में अंततः डूब ही जाता है।
Deleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (6-4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
आपका बहुत आभार आदरणीया!
Deleteअहं को अपनी जगह पर लाकर पटकने वाली कविता। विश्व साहित्य में बडे-बडे साहित्यकारों को कोई पुछता नहीं एक दो रचनाएं लिखने वालों की 'पुछ'कहां; हां अहं और घमंड की जरूर लंबी 'पूंछ' होती है। जहां भीं भीम की ताकत का गर्व हरन हुआ वहां ऐसों की गिनती तो न के बराबर होती है। जरूरी है लिखे भी और दूसरों का लिखा सराहे भी। सहज और सुंदर कविता।
ReplyDeletedrvtshinde.blogspot.com
आपका आभार!
Deleteवाह बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआग्रह है मेरे ब्लॉग में सम्मलित "समर्थक"हों
आभार आपका
आपका आभार!
Deletenice
ReplyDeleteThanks!
Deleteअधिक तारीफ पचती नहीं ... पर ऐसे में साहित्य भी जल्दी ही खत्म हो जाता है ...
ReplyDeleteसत्य कहा आपने!
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