शिव के शीश
विराजती, उतरी धरा तरंग।।
भागीरथ के वंश
को, तार गई ये गंग।।
गंगा निर्मल
पावनी, है जग का आधार।
त्रिवेणी संगम
भया, गंगा जमुनी प्यार।।
सरस सलिल सुखदायिनी,
अविरल ये जल धार।
इसके तट सब
दुख मिटे, मुदित हुए नर नार।।
जात पात का
भेद क्या, नहि मजहब आधार।
सबको जीवन दे
रही, बांट रही है प्यार।।
- बृजेश नीरज
बहुत ही सरस और सुखद दोहे,आभार.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteगंगा की निर्मल धारा फर्क नहीं करती ...
ReplyDeleteसामान बांटती है ... जीवन रस देती है ... सुन्दर काव्य धारा ...
आपका आभार!
Deleteदोहों से सिद्ध हो रहा है कि अब आपकी लेखनी दोहे लिखने मे परिपक्वता के चरम पर है।
ReplyDeleteसादर बधाई
आपके ये दोहे 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक किये जा रहें हैं।कृपया शनिवार के अंक मे http://nirjhar-times.blogspot..com पर प्रतिक्रिया/सुझाव प्रस्तुत करें।
ReplyDeleteयानी मेरी शेरनी बहन आखिर शिकार पर निकल पड़ी। आपका आभार!
Deleteगहन अनुभूति सुंदर रचना सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
आपका आभार!
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