Thursday, 4 April 2013

दोहे - गंगा


शिव के शीश विराजती, उतरी धरा तरंग।।
भागीरथ के वंश को, तार गई ये गंग।।

गंगा निर्मल पावनी, है जग का आधार।
त्रिवेणी संगम भया, गंगा जमुनी प्यार।।

सरस सलिल सुखदायिनी, अविरल ये जल धार।
इसके तट सब दुख मिटे, मुदित हुए नर नार।।

जात पात का भेद क्या, नहि मजहब आधार।
सबको जीवन दे रही, बांट रही है प्यार।।
                          - बृजेश नीरज

9 comments:

  1. बहुत ही सरस और सुखद दोहे,आभार.

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  2. गंगा की निर्मल धारा फर्क नहीं करती ...
    सामान बांटती है ... जीवन रस देती है ... सुन्दर काव्य धारा ...

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  3. दोहों से सिद्ध हो रहा है कि अब आपकी लेखनी दोहे लिखने मे परिपक्वता के चरम पर है।
    सादर बधाई

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  4. आपके ये दोहे 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक किये जा रहें हैं।कृपया शनिवार के अंक मे http://nirjhar-times.blogspot..com पर प्रतिक्रिया/सुझाव प्रस्तुत करें।

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    1. यानी मेरी शेरनी बहन आखिर शिकार पर निकल पड़ी। आपका आभार!

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  5. गहन अनुभूति सुंदर रचना सार्थक प्रस्तुति
    बहुत बहुत बधाई

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