तन मन
निर्मल कांच सा, काया रूप अनूप।
तू ममता की
खान है, तू दुर्गा का रूप।।
माता बनकर पालती,
पत्नी से परिवार।
बहन प्रेम की
धार है, बेटी सुख संचार।।
तन पिघलाकर
सींचती, घर आंगन संसार।
पर
तिरस्कृत हो रही, नारी हर घर द्वार।।
कन्या से
ही जग रचा, कन्या का अपमान।
धर ले
चण्डी रूप तू, तभी बढ़ेगा मान।।
- बृजेश नीरज
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