आज देश फिर
चिन्तित है। नारी की अस्मिता और सुरक्षा एक बार फिर से सवालों के घेरे में है। देश
के बुद्धिजीवी और चिन्तनशील लोग चिन्तन स्थलों पर चिन्तन कर रहे हैं। कुछ
अतिउत्साही और ऊर्जावान लोग सड़कों पर हैं। नारी की सुरक्षा पर एक बार फिर विचार जारी है।
देश में रोज, शायद यह शब्द उपयुक्त नहीं, हर
पल नारी के साथ हो रहे दुराचार से इतर मीडिया में प्रचारित और प्रसारित गुवाहाटी कांड,
दिल्ली बस कांड के बाद नारी की सुरक्षा के सवाल पर खूब विरोध प्रदर्शन हुए,
मोमबत्तियां जलायी गयीं, टीवी चैनलों पर जोरदार बहस हुई, सरकार की खिंचायी की गयी;
लेकिन परिणाम क्या हुआ? ढाक के तीन पात। इस तरह के विषयों पर सरकार संजीदा न कभी
थी और न कभी होगी। जो सरकार अन्ना के नेतृत्व में उभरे जनाक्रोश के बाद भी
जनलोकपाल को पचा गयी उससे नारी सुरक्षा के सवाल पर किसी गंभीर कदम की उम्मीद करना
सरकार के साथ नाइंसाफी होगी बल्कि कहें कि पूरी राजनैतिक व्यवस्था के साथ नाइंसाफी
होगी तो अधिक उपयुक्त होगा। वर्षों से लटका पड़ा महिला आरक्षण बिल इसका स्पष्ट
उदाहरण है।
अब राजनीति से इतर लोगों पर दृष्टिपात करें
तो भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखती। जब कोई कांड मीडिया में बहुत हाइलाइटेड हो
जाता है तो लोगों का तथाकथित सब्र का बांध टूट जाता है और फेसबुक पर फ्लर्टिंग में
मशगूल लोगों से लेकर समाज के लिए तथाकथित चिंतित लोग सोशल नेटवर्किंग साइट से लेकर
सड़कों तक अपनी चिन्ता और जोश उगलने लगते हैं। मोमबत्ती और चाट के ठेले वालों की
बिक्री बढ़ जाती है; लेकिन कुछ पलों बाद सबकुछ पहले जैसा। दामिनी कांड के बाद क्या
ऐसा नहीं हुआ था? खूब प्रदर्शन हुए, मोमबत्तियां जलायी गयीं। जंतर मंतर पर मेले का
सा माहौल था। शाम की टहल करने वालों को भी अपनी ‘ईवनिंग वाक’ के लिए अच्छा स्थान और बहाना मिल गया था। लेकिन
उसके बाद क्या हुआ? आरोपियों की गिरफ्तारी, सरकारी आश्वासनों और कई दिनों की थकावट
ने धीरे धीरे जोश ठंडा कर दिया। मोमबत्तियों के बुझने के साथ ही लोगबाग अपने जीवन
के दूसरे कर्मों में आत्मसंतुष्टि के साथ तल्लीन हो गए।
नारी के साथ दुराचार मोमबत्ती जलने के पहले
भी हो रहे थे, मोमबत्ती जलने पर भी हुए और बुझने के बाद भी हो रहे हैं। हर घर, हर
मोहल्ला, हर सड़क पर हर पल नारी बेइज्जत हो रही है। इसमें दोष किसका है? कितने
पुलिसवाले हों और कौन से पैमाने बनाए जाएं इस दुराचार को परिभाषित करने के और किस
पैमाने के लिए कितना दण्ड निर्धारित किया जाए और किस किस को दण्डित किया जाए? यह
अहम सवाल है। नारी को बोलने की आजादी न देना भी दुराचार है और उसकी इज्जत के साथ
खिलवाड़ भी दुराचार है। कितने कानून बनेंगे? क्या सिर्फ बैनर और तख्ती लेकर सड़क पर
नारेबाजी से समस्या का निदान सम्भव है? सवाल बहुत से हैं और खास बात यह कि उत्तर
किसी भी प्रश्न का नहीं और न ही लोग उत्तर खोजना चाहते हैं।
कोई
यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि दरअसल समाज की
सोच ही दूषित है। समाज खुद को कितना भी आधुनिक और विकासशील मानने का ढोंग
रच ले लेकिन मानसिकता अब भी पाषाण युग की है जिसमें नारी भोग्या से अधिक नहीं और
इसी मानसिकता के चलते सारी तथाकथित आधुनिकता के विज्ञापनों को भी इसी तरह गढ़ा गया
है कि वे नारी को एक भोग्या की ही तरह परोसते हैं। ऐसे में यदि इस तरह की घटनायें
हो रही हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। तमाम तरह की विकृतियों के साथ पाशविक
कामुक मनोवृति कुछ इस तरह गढमढ हो गयी कि नारी को कुत्सित हवस ने खुलेआम शिकार बनाना
शुरू कर दिया। समाज की इन दूषित मनोवृतियों के लिए सोने पर सुहागे का काम किया है
शर्लिन चोपड़ा और सनी लियोनी जैसी माताओं ने।
नारी स्वातंत्रय के लम्बरदार नारीवादियों की
स्थिति तो और भी खतरनाक है क्योंकि वहां बहस तो नारी को मनचाहे कपड़े पहनने की
आजादी या परशुराम की तरह धरती को पुरूषविहीन कर देने के नारे से आगे नहीं बढ़ पाती।
परिवार और पुरूषों के बीच रहकर अपनी स्वतंत्रता की बात उन्हें भाती ही नहीं।
इतिहास साक्षी है कि अतिवादिता किसी भी आंदोलन के लिए ताबूत की आखिरी कील ही साबित
हुआ है और यही नारीवादी आंदोलन के साथ भी हो रहा है। इस तथाकथित स्वतंत्रता का
नारा दूर दराज की ‘देहाती नारियों’ के दिलों तक अपनी पहुंच बनाने में नाकाम रहा है
और यही इस आंदोलन की अब तक की असफलता का कारण भी रहा है। हर समाज की अपनी संस्कृति
और मर्यादायें होती हैं और उस समाज के परिवर्तन का कोई भी आंदोलन सफल तभी हो सकता
है जब उसका खाका उस समाज की संस्कृति को ध्यान में रखकर तैयार किया गया हो। आज
अतिवादी अपने आलीशान बंगले में बैठकर जिस नारी की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं वह ‘देहाती
औरतों’ के लिए मुंह पर पल्लू रखकर खिलखिलाने और सकुचाने का मसाला भर है। यही कारण
है कि नारी स्वातंत्र आंदोलन केवल बिखरा ही नजर आता है। एकजुटता के अभाव में नारी
हर जगह अपमानित होती जा रही है और खुद नारी खड़ी तमाशा भर देख रही है।
यह बात स्वीकारनी होगी कि इस तरह के मुद्दों
पर जब हम झण्डे और बैनर लेकर सड़कों पर निकलते हैं तो दरअसल अपनी जिम्मेदारी से
मुंह भी चुराते हैं। नारी अस्मिता के प्रश्न पर केवल सरकार नहीं बल्कि पूरा समाज
दोषी है। हम भाषण तो बहुत अच्छे दे लेते हैं लेकिन खुद अपनी सोच की गारण्टी नहीं
ले सकते। वास्तविकता में तो पूरे समाज को मनोचिकित्सा की जरूरत है।
इस तरह के मुद्दे क्षणिक नहीं हैं। इस पर तो
गम्भीर मंथन होना चाहिए। यदि हम गम्भीर हैं तो शुरूआत हमें अपने घर से करनी होगी।
मां बाप को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को नारी की इज्जत करना सिखाएं तभी
भविष्य की संभावनाएं सुंदर होंगी। नारी की सुरक्षा पर पूरे समाज को निरंतर सोचना
होगा, आत्मचिंतन करना होगा, आत्मावलोकन करना होगा। हमें अपनी व्यवस्थाओं के
पुनर्मुल्यांकन की जरूरत है। केवल तख्ती और मोमबत्ती से काम नहीं चलने वाला।
- बृजेश नीरज
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