Friday, 12 April 2013

गद्य काव्य/ अवसाद


     इस गर्मी की दुपहरिया में मैं निश्चल शान्त बैठा था। कमरे के बाहर जैसे आग बरस रही हो। चमड़ी को छीलती सी गरम हवा और अंगारों सी छूती सूरज की किरन। चारों तरफ सन्नाटा पसरा था। सब घर के भीतर दुबके थे, मैं भी।
     कमरा भी निःशब्द था, मैं भी। बाहर भीतर बस खामोशी छायी थी। सब कुछ शान्त। धीरे धीरे जाने क्यों मेरे मन के भीतर एक सांझ सी उतरने लगी। अवसाद सा भरने लगा। जाने कौन सा दुख मुझमें पैठ बनाने लगा।
     महसूस कर रहा हूं कि मेरा अपना दुख मेरे अंदर भर रहा है। मेरे असफल संघर्ष अतृप्ति की व्यथायें मेरे भीतर लौट लौटकर प्रवेश कर रहे हैं। इस कमरे की सीलन, जर्जर दीवार की झड़ती पपड़ियां, फर्श के गड्ढे, चिटकी छत की दरारें, सब मुझे जकड़ रही थीं। इस कमरे के अंदर बाहर का सारा दर्द मुझे भेदकर मेरे अंदर समा रहा था।
     मैं भर गया हूं अवसाद से। फिर भी शायद मेरे भीतर बहुत जगह शेष है इसीलिए बचपन से अब तक के सारे दुख, पत्नी का कष्ट, बच्चे की तकलीफ, रिश्तों की कड़ुवाहट, नातों की टूटती डोर, सब फिर फिर कर मेरे पास रहे हैं। सब मुझे घेरकर बांध लेने को आतुर हैं। दरवाजे से टकराकर लौटती हवा की वेदना, धूप की कमरे में प्रवेश कर पाने की पीड़ा, सब मुझे दिख रही है।
    सब चर-अचर, भोगा-अभोगा, भूत-भविष्य दुख बनकर मुझमें समाहित हो रहे हैं और मैं चुपचाप, निश्चल बैठा हूं मूकदर्शक बनकर। प्रतीक्षारत हूं कि शेष सारे दुख आकर इस कदर मेरे भीतर समा जाएं कि अंततः यह घड़ा फूट जाए और सब कुछ बरसात बनकर बह निकले। इस अतृप्त धरा को तृप्त कर दे।
                            - बृजेश नीरज

12 comments:

  1. आपका आभार!

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  2. वाह!!! बहुत बढ़िया | आनंदमय | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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  3. बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  4. बहुत ही बेहतरीन उम्दा प्रस्तुति,आभार.

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  5. सुन्दर रचना

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  6. बेहतरीन रचना...
    पधारें "आँसुओं के मोती"

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  7. बहुत पीड़ा और अवसाद भरे उद्दगार .....सच में पिघल कर बरस जाए तो कुछ चैन आये

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