माटी कहे कुम्हार से, कैसी जग
की रीति।
मुझसे ही निर्मित हुआ, करे न
मोसे प्रीति।।
समय चाक है
घूमता, क्यूं न करे
विचार।।
चाक चढ़ा तो
गढ़ गया, समय
गए बेकार।।
अपनी अपनी कारनी, अपने अपने साथ।
थमा
कहीं
यह चाक तो,
कछु नहि आए
हाथ।
ईश्वर ने ये
जग रचा. दीन्हा चाक चढ़ाय।
जाके साथ न
कर्म है, हाय
हाय चिल्लाय।।
- बृजेश नीरज
No comments:
Post a Comment