Tuesday 12 March 2013

क्षणिकाएं


कुम्हार

रूप दे दो
इधर उधर बिखरी हुई है
ये मिट्टी
रौंद रहे हैं लोग
रंग काला पड़ने लगा
कुछ कीड़े भी पनपने लगे

इसे कोई रूप दे दो
कुम्हार
कि फिर निखर आए
यह एक नए रूप में।
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तारे

चाहता हूं मैं भी
तोड़ लाना आसमान के तारे
तुम्हारे लिए
लेकिन क्या करूं
मेरा कद है बौना
हाथ छोटे।
           - बृजेश नीरज

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