Sunday 10 March 2013

लघुकथा - बंदर


आजादी के समय देश में हर तरफ दंगे फैले हुए थे। गांधी जी बहुत दुखी थे। उनके दुख के दो कारण थे - एक दंगे, दूसरा उनके तीनों बंदर खो गए थे। बहुत तलाश किया लेकिन वे तीन न जाने कहां गायब हो गए थे।
एक दिन सुबह अपनी प्रार्थना सभा के बाद गांधी जी शहर की गलियों में घूम रहे थे कि अचानक उनकी निगाह एक मैदान पर पड़ी, जहां बंदरों की सभा हो रही थी। उत्सुकतावश गांधीजी करीब गए। उन्होंने देखा कि उनके तीनों बंदर मंचासीन हैं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। प्रसन्न मन वे उन तीनों के पास पहुंचे।
गांधीजी, ’अरे तुम लोग कहां चले गए थे, मैंने तुम तीनों को कितना ढूंढा? यहां क्या कर रहे हो?’
बंदर बोले, ’गांधीजी, हम लोगों ने आपको और आपके सिद्धान्त दोनों को त्याग दिया है। यह हमारी पार्टी की पहली सभा है। देश आजाद हो गया। अब आपकी और आपके सिद्धान्तों की देश को क्या जरूरत?’
गांधी जी हतप्रभ से खड़े रह गए। आज भी खड़े हैं ठगे से, मूक इस देश में हो रहा तमाशा देखते।
अपने शहर में ढूंढिएगा मिल जाएंगे मूर्तिवत खड़े हुए।
                         - बृजेश नीरज

6 comments:

  1. सच बयां करती लघुकथा

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  2. सार्थक प्रस्तुति,आभार.

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  3. बहुत बढ़िया .
    http://uttamstruthordare.blogspot.in/2010/07/blog-post_30.html

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  4. बस तभी से गांधी जी ने किताबों में जगह बना ली ओर उनके चेलों ने सत्ता पे ...

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    1. और वे किताबें भी अब नहीं पढ़ी जातीं।
      आपका आभार!

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  5. आपसे जुड़ गया हूं।

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