Sunday, 24 March 2013

सता के मारा


ग़र तू मिले, बताऊं, कैसे सता के मारा
इस जिंदगी ने देखो कैसे ज़िला के मारा

महबूब मेरा मुझको छलता रहा यूं हर पल
नजरें मिला के मारा, नजरें चुरा के मारा

दस्तूर इस जहां का अब तो ये हो चला है
इसको हंसा के मारा, उसको रूला के मारा

जो बह रहा है दरिया उसमें जहर घुला है
इन नफरतों ने सबको कैसे जला के मारा

बिस्तर न चारपाई, बस साथ ये बिछौना
इस आत्मा को मैंने तन से लगा के मारा
                         - बृजेश नीरज

8 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.

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  2. आज की ब्लॉग बुलेटिन होली आई रे कन्हाई पर संभल कर मेरे भाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. बहुत बढ़िया ग़ज़ल....
    बेहतरीन शेर..


    अनु

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