ग़र तू मिले,
बताऊं, कैसे सता के मारा
इस जिंदगी ने
देखो कैसे ज़िला के मारा
महबूब मेरा
मुझको छलता रहा यूं हर पल
नजरें मिला
के मारा, नजरें चुरा के मारा
दस्तूर इस जहां
का अब तो ये हो चला है
इसको हंसा के
मारा, उसको रूला के मारा
जो बह रहा है
दरिया उसमें जहर घुला है
इन नफरतों ने
सबको कैसे जला के मारा
बिस्तर न चारपाई,
बस साथ ये बिछौना
इस आत्मा को
मैंने तन से लगा के मारा
- बृजेश नीरज
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeleteआपका आभार!
Deleteआज की ब्लॉग बुलेटिन होली आई रे कन्हाई पर संभल कर मेरे भाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपका आभार!
Deleteभावनात्मक ग़ज़ल। आभार
ReplyDeleteनये लेख : भगत सिंह, 20 रुपये के नये नोट और महिला कुली।
विश्व जल दिवस (World Water Day)
विश्व वानिकी दिवस
"विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष।
बहुत भावपूर्ण सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeletelatest post भक्तों की अभिलाषा
latest postअनुभूति : सद्वुद्धि और सद्भावना का प्रसार
बहुत बढ़िया ग़ज़ल....
ReplyDeleteबेहतरीन शेर..
अनु
आपका आभार!
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