Tuesday, 19 March 2013

दोहे - बसंत


कंचन काया कामिनी, डोलत कटि ज्यों डोर।
मोहक अति मन भावनी, भ्रमर सरिस चित चोर।।

नैनन में कजरा भरे, चितवन चतुर चकोर।
इत उत खोजत फिरत है, नटखट श्याम किशोर।।

काटे से तो नहि कटी, पानी की ये धार।
इक छोटी सी बात पर, बंट गया घर संसार।।

अब तो मन बैरी भया, पिया मिलन की आस।
बासंती मधुबन भया, बढ़ती जाए प्यास।।

टेसू, सरसों सब खिले, आंगन में मलमास।
रंग सभी फीके हुए, पिया नहीं जो पास।।

बागों में कलियां खिलीं, पेड़ सभी हरियाय।
मैं पतझड़ की बेल सी, सूखत दिन दिन जाय।

इस होली के रंग में, डूबा सब संसार।
तुम बिन सूनी मैं हुई, सूना ये घर द्वार।।
                           - बृजेश नीरज


16 comments:

  1. बधाई हो आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज के ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकशित की गई है | सूचनार्थ धन्यवाद |

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  2. बहुत ही सुन्दर और सार्थक दोहे,धन्यबाद.

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  3. sahi bat piya ke bina kaisee holi?

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    1. आपको रचना पसन्द आई लिखना सार्थक हुआ।

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  4. आपकी पोस्ट 21 - 03- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें ।

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  5. बहुत बहुत बहुत सुंदर ...मजा आ गया

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    1. आपको रचना पसन्द आई लिखना सार्थक हुआ। आभार!

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  6. आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 27/03/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

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    1. आपका आभार!यशोदा बहन को लम्बे समय बाद मेरी कोई रचना पसन्द आई इसलिए विशेष आभार!

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  7. बहुत प्रभावी दोहे ...
    सच को हूबहू कहते हुए ...

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  8. बहुत प्यारा लिखा है आपने.

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद!

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