मेरे सामने
सबसे बड़ी समस्या यह रही कि गजल लिखना सीखा किससे जाए तो उसका वही रास्ता मैंने
चुना जो कि पढ़ने और पढ़ाने के दौर में किया करता था। पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध
लेखों को पढ़कर उनसे अपने नोट्स बनाने शुरू
किए हैं। सीखने के इस दौर में नोट्स यहां इस अनुरोध के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं कि
जो सुधीजन इस क्षेत्र में जानकारी रखते हैं वे इसे पढ़ें और यदि कुछ छूट गया हो तो
उसकी जानकारी दें तथा यदि कुछ त्रुटि हो तो उसे सुधारने का कष्ट करें।
गज़लः एक
परिचय
गजल एक सुकोमल विधा है। ‘वह नफासत पसंद है।
हाथ लगाए मैली होती है, उसे स्चच्छता तथा सलीके से स्पर्श करना होता है।‘ यह मूल
मंत्र है। इसको ध्यान रख कर ही गजल लिखने का प्रयास करना चाहिए।
गजल एक गेय कविता है और यही उसके लोकप्रिय
होने का कारण भी है। उसमें छंदों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। गज़ल और छंद का
संबंध उसी प्रकार का है जिस प्रकार आत्मा और शरीर का। गज़ल की प्रभावोत्पादकता छंद
के द्वारा ही है। उसका किसी बहर अथवा छंद में होना अपरिहार्य है। गजलकारों को बहर
के लिये ‘तख्ती’ करना अथवा छंद के लिये ‘मात्रा-गणना’ करना सीखना चाहिए। यदि रचना
बहर में लिखनी है तो तख्ती का और अगर छंद में लिखनी है तो मात्रा गणना का
व्यहवारिक ज्ञान एवं अभ्यास होना आवश्यक है।
गजल मुख्तलिफ शेरों में कही जाती है एंव गजल
मुसलसल भी कही जाती है। यह समझना जरूरी है कि गजल बनाई नहीं जाती या तो लिखी जाती
है या कही जाती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा
कहते हैं। गजल की खास बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण
विचार धारा लिए होता है और उसका सारोकार गजल में आने वाले अगले, पिछले अथवा अन्य
शेरों से हो, यह जरुरी नहीं।
एक कामयाब शायर होने के लिये चार चीजें
जरूरी होती हैं विचार, शब्द, व्याकरण और प्रस्तुतीकरण। विचार तभी पैदा होते हैं जब
हम अपने समय की नब्ज से परिचित हों। समाज की दिशा और दशा को समझना किसी भी कवि या
शायर के लिए बहुत जरूरी है। आज हम तुलसीदास की तरह ‘तुलसी अब का होंइगे नर के
मनसबदार’ कह कर बच नहीं सकते। कवि होने के नाते हमारी जिम्मेदारी है कि हम समाज पर
नजर रखें।
शब्द दूसरी
चीज है जिसकी जरूरत होती है। शब्द तभी आते हैं जब अध्ययन होता है। कहीं पढ़ा था कि
’यदि आप एक पेज लिखना चाहते हो तो पहले 1000 पेज पढ़ो।’ इसका सीधा अर्थ हुआ कि अपना
शब्दकोश समृद्ध करने के लिए पढ़ना अति आवश्यक है।
यहां एक
बात का जिक्र बहुत जरूरी है। कुछ लिखने वाले क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग को बहुत
महत्व देते हैं और अपने समर्थन में पुराने रचनाकारों का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
लेकिन यहां एक बात ध्यान देने वाली है कि तुलसीदास, मीरा, महादेवी वर्मा, निराला,
गालिब सबके अपने दौर थे और उस दौर की अपनी भाषा। समय जैसे परिवर्तित होता गया लोक
सामान्य की भाषा में भी बदलाव हुआ। आज का सामान्य आदमी न तो संस्कृत के क्लिष्ट
शब्दों को समझता है और न फारसी के। शब्द ना तो उर्दू के, फारसी के या संस्कृत के
प्रयोग करना चाहिए जिनका अर्थ सुनने वाले को डिक्शनरी में ढूंढना पड़े। वे ही शब्द
प्रयोग करने चाहिए जो आम आदमी के समझ में आ जाए क्योंकि कोई भी रचना उसी के लिये
तो लिखी जा रही हैं न कि केवल भाषा के पंडितों के लिए। उदाहरण के लिए देखें,
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,
इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा।
इसमें सब
कुछ वही है जो आम आदमी का है। बात यूं लग रही है कि प्रेमिका की हो रही है पर सोचो
तो राजनीति पर कटाक्ष भी कर रही है।
गजल में भाषा का बहुत महत्त्व है। फारसी
शायरों ने शेर में सरल शब्दों के प्रयोग की बात की है, क्योंकि इससे काव्य में
प्रवाह, कोमलता तथा मिठास उत्पन्न होती है और काव्य प्रभावी बनता है। अरस्तू की
पुस्तक का जो अनुवाद ‘बोतीका’ नाम से अजीज अहमद ने किया है उसमें भी कविता के
भाषाई पक्ष पर अधिक बल दिया गया है। उसमें कहा गया है कि काव्य भाषा फसीह (सरल) और
उत्तम होनी चाहिए और इसमें बाजारी मुहावरों का प्रयोग न होकर अनोखे शब्दों का
प्रयोग होना चाहिये। यदि उपमा आदि अलंकारों की भरमार होगी, तो काव्य एक पहेली बन
जाएगा और यदि अपरिचित शब्दों का बाहुल्य होगा, तो काव्य किसी दीवाने ब्रह्मलीन की
बड समझा जाएगा। हाली ने भी गजल के लिए उचित शब्द चयन पर बल दिया है। उनका कहना है
कि गुलाब की एक टहनी में काँटें भी फूलों के साथ निभ जाते हैं मगर गुलदस्ता में एक
काँटा भी खटकता है।
तीसरी चीज है व्याकरण जिसको उर्दू में अरूज
कहा जाता है। बिना लय या धुन के गजल मजा नहीं देती इसलिए प्रभाव पैदा करने के लिए
अरूज आवश्यक है। निराला की कविता ’वो तोड़ती पत्थर’ छंदमुक्त नई कविता है पर
छंदमुक्त होने के बाद भी उसमें रिदम है। ये रिदम पैदा होता है व्याकरण से, अरूज
से। जब गजल अरूज के हिसाब से होती है तो उसमें लय स्वयं ही आ जाती है। अरूज की
तराजू पर ही गजल को कस कर देखा जाता है और कसने वाला होता है अरूजी, जिसे अरूज का
ज्ञान होता है।
प्रस्तुतिकरण कवि के अंदर ही होता है। किस
तरह से शायर अपनी कविता या गजल को पढ़ता है यह उस पर ही निर्भर करता है। व्याकरण का
संपूर्ण ज्ञान भी किसी व्यक्ति को शायर नही बना सकता। विधि-विधान केवल शेर के
गुण-दोष परखने के काम आता है। इस ज्ञान से शेर या गजल कहना सीखा जा सकता है। यदि
कोई व्यक्ति अपने स्वाभाव से काव्यात्मक नही है, उसकी प्रवृति छंदो के अनुकूल नहीं
है उर्दू शब्दों में कहें तो कोई व्यक्ति यदि मौंजू-तबअ नहीं है तो व्याकरण की
गहरी से गहरी जानकारी भी उसे गजल लिखना नहीं सिखा सकती !
गजल
समसामयिक, जनोपयोगी तथा अपनी धरती और परिवेष से जुड़ी हो, कथ्य एवं शिल्प में
सामंजस्य हो, भाषा सरस-सरल हो। पाठकों एवं श्रोताओं में वही भाव सम्प्रेषित हो, जो
गजलकार व्यक्त करना चाहता है, और सबसे बड़ी बात यह कि वह अंतरमन में गहरे उतर जाए,
कुछ सोचने को विवश करे। जिसके शेर उदाहरण स्वरूप पेश किये जा सकें तथा जिसके
शब्दों के उच्चारण प्रामाणिक हों, बहर में हो अथवा सही छंदोबद्ध हो।
शेष अगली बार…….
- बृजेश नीरज
ग़ज़ल के बारे में क्या आलेख लिखा है ब्रिजेश जी,मैंने इसको तीन बार पढ़ा और पीडीऍफ़ में सेव भी कर लिया बाद में पढ़ने के लिए,बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteआपका आभार! अपने को सुधारने का प्रयास कर रहा हूं।
Deleteअच्छा आलेख ...
ReplyDeleteगज़ल की दुनिया में बहुत कम हो रहा है ... कहने ओर लिखने की विधा में भी काम हो रहा है ... नेट पे आपको आदर्मीय पंकज सुबीर जी , प्राण जी ओर वीनस जी के माध्यम से बहुत जानकारी उपलब्ध है ... आप पंकज सुबीर जी के ब्लॉग से बहुत जानकारी ले सकते हैं ..
इन्हीं जानकार लोगों के आलेखों तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर ये नोट्स तैयार कर रहा हूं।
Deleteवाह...!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक प्रस्तुति!
आभार!
आदरणीय गुरूजी,
Deleteआपका आभार! अपने को सुधारने का प्रयास कर रहा हूं। जब तक किसी विधा की सम्पूर्ण जानकारी न हो उसमें लेखन सफल नहीं हो पाता। आप तो महारथी हैं। आपसे इस क्षेत्र में मार्गदर्शन चाहूंगा।